पेसा कानून लागू हुआ तो 2029 का चुनाव जीतेंगे सीएम हेमंत सोरेन!

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झारखंड के संदर्भ में अगर आप तीन सबसे बड़े मुद्दों या मांगों की सूची बनाएंगे, तो इसमें पेसा कानून का नाम जरूर आएगा।

पेसा को लागू करने की मांग पुरानी है, अक्सर चुनाव के दौरान या बाद में भी यह मांग उठती रही है। हाल ही में भी ऐसा ही हुआ है। हेमंत सोरेन की पिछली सरकार में ही पेसा का फाइनल ड्राफ्ट बनाने की कवायद शुरू हुई थी, चुनाव के दौरान और नई सरकार बनने के बाद भी पेसा कानून चर्चाओं में आता रहा है।

आज हम पेसा कानून के लगभग सभी पहलुओं पर चर्चा करेंगे और इससे संबंधित कुछ जरूरी सवालों को ढूंढने के प्रयास करेंगे। जैसे – पेसा कानून क्या है, इसके तहत 5वीं अनुसूची के क्षेत्रों में क्या प्रावधान है?

यह जपीआरए से कैसे अलग है, अभी तक इसे लागू क्यों नहीं किया जा सका है, क्या चुनौतियां हैं और इसके लागू होने से झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में क्या बदल सकता है?

पेसा से जुड़े कुछ विवादों या रीसेंट घटनाक्रम पर भी बात करेंगे।

पेसा क्या है?

सबसे पहले हम पेसा क्या है और इसके तहत क्या प्रावधान हैं, इसपर बात करते हैं। पेसा, यानी पंचायत एक्सटेंशन ऑफ शिड्यूल एरिया एक्ट 1996।

नाम से ही जाहिर है कि यह शिड्यूल एरिया यानी अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायती व्यवस्था की बात करता है, जिसके तहत इन क्षेत्रों में स्वशासन के लिए ग्राम सभाओं को विशेष अधिकार दिये गए हैं। सीधे शब्दों में कहें तो पेसा अनुसूचित क्षेत्रों में रह रहे आदिवासियों को यह अधिकार देता है कि वे अपनी पारंपरिक व्यवस्था के तहत संचालित हों और उस क्षेत्र के संसाधनों पर उनका हक हो।

1966 में संसद मे हुआ था पास

यह कानून 1996 में भारत की संसद से पास हुआ था। जिसके बाद 5वीं अनुसूची के राज्यों को पेसा कानून का अपना ड्राफ्ट बनाकर लागू करना था।

झारखंड ने 2022 में पेसा का एक ड्राफ्ट बनाया था, लेकिन यह लागू नहीं हो सका। हाल में संशोधित ड्राफ्ट तैयार किया गया है, जिसे अभी कैबिनेट से मंजूरी मिलनी बाकी बाकी है। इस ड्राफ्ट को कई तरह के सुझावों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है।

चूंकि अभी यह ड्राफ्ट कैबिनेट से पास नहीं हुआ है, साफ-साफ नहीं कहा जा सकता कि इसमें क्या है और क्या नहीं। लेकिन फिर भी मोटे तौर पर किन बिंदुओं को इसमें शामिल किया गया है, यह मैं आपको बताने की कोशिश करता हूं।

  1.  पहला तो मैंने बताया कि अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदाय अपनी पारंपरिक व्यवस्था से संचालित होंगे, जैसे मुंडा, मानकी, पडहा राजा आदि व्वस्थाएं, जो आप जानते हैं कि आदिवासी समाज में शासन की ईकाईयां रही हैं।
  2.  यह कानून इन क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों पर भी ग्राम सभाओं को अधिकार देता है, उनकी अनुमति के बिना इन संसाधनों का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता
  3. 2022 के ड्राफ्ट के अनुसार पारिवारिक झगड़ों को सुलझाने का अधिकार और साथ में आईपीसी के कुछ केस की सुनवाई तक का अधिकार ग्राम सभाओं को दिया गया था
  4. जमीन के हस्थांतरण संबंधी कोई भी डील ग्राम सभाओं की अनुमति के बिना नहीं हो सकती। और अगर आदिवासी जमीन का गैर-कानून हस्थांतरण हुआ है, तो ग्राम सभाओं को अधिकार है कि जमीन उसके पुराने मालिक को लौटा दे।
  5. अगर गांव से किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी होती है, तो गिरफ्तारी के 48 घंटे के भीतर पुलिस को ग्राम सभाओं के सूचित करना होगा।
    इन सबके अलावा बालू खनन, या अन्य माइन्स पर नियंत्रण का भी अधिकार ग्राम सभाओं को दिया गया है।

साफ तौर पर देखा जा सकता है कि पेसा ग्राम सभाओं को ऐसे अधिकार देता है, जो आम तौर पर सरकारों, सरकारी एजेंसियों और कुछ हद तक न्यायपालिका के पास होता है।

जैसे कुछ मामलों पर सुनवाई करने के आधिकार, या खनन आदि पर अधिकार या संसाधनों पर अधिकार। निश्चित तौर पर इसके लागू होने से ग्राम सभाएं मजबूत होंगी, आदिवासी समाज अपने नियमों से संचालित होगा और इसमें सरकार या किसी भी बाहरी संस्था का हस्तक्षेप न के बराबर हो जाएगा।

पेसा के साथ जीपीआरए की भी चर्चा

पेसा के साथ जीपीआरए की चर्चा भी राज्य में तेज है। आप इसके बारे में भी जरूर सुन रहे होंगे। जीपीआरए यानी ग्राम पंचायत राइट एक्ट। यह देश के गैर अनुसूचित क्षेत्र या गैर आदिवासी क्षेत्रों में लागू होता है।

आप जानते हैं कि भारत में संघीय ढांचे यानी फेडेरल सिस्टम के तहत त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था है। केंद्र, राज्य और पंचायती राज। पेसा भी त्रिस्तरीय व्यवस्था का ही हिस्सा है, लेकिन जीपीआरए से बहुत अलग है।

पेसा की तरह जीपीआरए में ग्राम पंचायतों को संसाधनों पर कोई अधिकार नहीं है, न ही जमीन के हंस्थांतरण या विवादों के सुलझाने का कोई अधिकार है। स्वायत्तता भी नहीं है। पेसा आदिवासियों की परंपरागत व्यवस्था की बात करता है, जबकि जीपीआए में चुनाव के तहत मुखिया या सरपंच बनते हैं। अधिकारों के अलावा दोनों के काम करने की प्रणाली में भी बहुत अंतर है।

आप ऐसे समझें कि उरांव समुदाय में पांरपरिक व्यवस्था के तहत अलग स्थितियां हो सकती है, मुंडा समाज में अलग, संताली, हो या पहाड़िया में अलग। यानी पेसा पूरे राज्य में यूनिफॉर्म नहीं है। इसके प्रावधान आदिवासी विशेष की परंपरा के आधार पर बदल सकते हैं।

जबकि जीपीआरए पूरे देश में एक समान लागू होता है। इसके अधिकार, प्रणाली सब एक समान हैं।
अब सवाल है कि आखिर 1996 के बाद से अब तक झारखंड में पेसा कानून लागू क्यों नहीं किया जा सकता।

सीधा जवाब तो यह है कि ड्राफ्ट नहीं बना था, तो लागू कैसे होता? लेकिन असल जवाब कुछ और है। ड्राफ्ट बनने में देरी के कारणों पर अगर हम गौर करें तो पाते हैं कि पेसा ग्राम सभाओं को मजबूत तो करती है, लेकिन इससे सरकार के अधिकार कम होते है। यानी कि यह कानून सररकार के हाथ से शक्तियां लेकर ग्राम सभाओं को देता है।

अब आप बताइये कि कौन सी सरकार अपनी शक्तियां कम करना चाहेगी? हालांकि वर्तमान की हेमंत सरकार ने इसे लेकर पहल की है और ऐसा लग रहा है कि झारखंड में पेसा कानून जल्द ही लागू हो सकता है।
अपने अगले सवाल पर आते हैं। कि अगर झारखंड में पेसा कानून पूरी तरह से लागू हो जाता है, तो किस तरह के बदलाव आएंगे या आदिवासियों के जीवन में क्या बदल जाएगा? इसे लेकर अपने-अपने दावे हैं, अपनी-अपनी दलील है।

कुछ लोगों का मानना है कि इससे आदिवासी समुदाय स्वायत्त हो सकेंगे और उन्हें शोषण से मुक्ति मिलेगी। जैसे जितने भी प्राकृतिक संसाधनों का खनन या उनका व्यापार हो रहा है, उनका दुष्प्रभाव आदिवासियों पर पड़ता है। उनकी जमीने जाती हैं, वे विस्थापित होते हैं, कई अन्य तरह की परेशानी होती है।

अगर पेसा के तहत इन संसाधनों पर उनका हक काबिज होता है, तो वे अपने हिसाब से इसे संचालित कर सकेंगे और जो उदासीनता सरकार के स्तर पर उनके प्रति होता है, वह नहीं होगी। वे अपना विकास खुद तय कर सकेंगे।

दूसरी बात विवादों का निबटारा पारंपरिक व्यवस्था के तहत होगा, इससे आदिवासियों की निर्भरता अन्य व्यवस्थाओं पर कम होगी। इस तरह के कई तर्क हैं जो पेसा को आदिवासियों की बेहतरी से जोड़कर देखते हैं।

दूसरी तरफ यह भी कहा जाता है कि इस कानून का गलत इस्तेमाल हो सकता है। लोकल लेवल पर कुछ लोग अपने व्यक्तिगत हितों के लिए इसका दुरुपयोग कर सकते हैं।

हालांकि देश के संसद ने आदिवासियों की पारंपरिक व्यवस्था पर स्वीकारोक्ति देते हुए 1996 में ही इस कानून को पास किया, ताकि देश के आदिवासी अपनी पांरपरिक व्यवस्था के तहत ही जीवन-यापन कर सकें।

कई सालों तक झारखंड में यह मामला अटका रहा, जिसके कारणों पर हमने बात की, लेकिन अब ऐसा लगता है कि पेसा के लागू होने का रास्ता खुल रहा है।

पेसा कानून पर आपकी क्या राय है, हम जानना चाहेंगे। क्या झारखंड सरकार को पेसा कानून प्रभावी तरीके से लागू करना चाहिए? हमें कमेंट में ज़रूर बताइए

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