झारखंड में क्यों लागू नहीं हो सका आदिवासियों के लिए बना सबसे बड़ा कानून, गर्वनर की टिप्पणी से छिड़ी बहस

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Ranchi: विश्व आदिवासी दिवस के मौके पर झारखंड के नये राज्यपाल संतोष गंगवार ने पेसा कानून लागू करने की बात कह नई बहस छेड़ दी है. राज्यपाल ने सीएम हेमंत की मौजूदगी में कहा है कि बाकी अनुसूचित जिलों में पेसा कानून लागू है लेकिन झारखंड में नहीं. हालांकि, गर्वनर संतोष गंगवार अकेले व्यक्ति नहीं हैं जिन्होंने पेसा कानून लागू करने की मांग की है.

इसे पहले झामुमो के वरीय विधायक लोबिन हेम्ब्रम भी कई बार पेसा कानून लागू करने की मांग कर चुके हैं. उन्होंने कई बार कहा है कि पेसा कानून लागू नहीं होने से झारखंड के आदिवासियों की जमीनें खतरे में है.

जल और जंगल पर उनका अधिकार भी सुरक्षित नहीं है. मुझे लगता है कि इतना ब्रीफ करने के बाद अब आप समझ ही गये होंगे कि पेसा कानून क्या है. नहीं समझे तो हम बताते हैं.

पेसा कानून को आधिकारिक तौर पर पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम-1996 के नाम से जाना जाता है. संविधान के भाग-9 में दिये गये प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार देने या लागू करने के लिए दिसंबर 1996 में यह कानून लाया गया था. अनुसूचित क्षेत्रों को संविधान की 5वीं अनुसूचि में कई विशेष प्रावधान दिये गये हैं. ये प्रावधान अनुसूचित क्षेत्रों की कई मामलों में सुरक्षा और संरक्षण देते हैं. अनुसूचित क्षेत्र माने, ऐसा इलाका जहां जनजाति और आदिम जनजातीय समुदाय के लोग रहते हैं.

आजादी के बाद सरकार के सामने ये सवाल आया था कि जनजाति और आदिम जनजाति समुदाय की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जायेगी और इसलिए संविधान में कई प्रावधान किये गये हैं.

यदि पेसा कानून को बहुत आसान भाषा में समझना चाहें तो ऐसा कानून जिसके जरिए आदिवासियों का जल, जंगल औऱ जमीन पर अधिकार सुरक्षित किया जा सके. कानून, जिसके जरिये आदिवासियों की परंपरा, संस्कृति, भाषा और परिवेश का संरक्षण किया जा सके. कानून जो बाहरी हस्तक्षेप से आदिवासियों के इको-सिस्टम को बचाये. और तभी हो सकेगा जबकि आदिवासी कानूनी और सामाजिक रूप से अपने फैसले खुद कर सकें. आदिवासी तय कर सकें कि उनके लिए क्या जरूरी, अच्छा और लाभकारी है.

कुल मिलाकर पेसा कानून आदिवासी इलाकों में उनकी मरती पारंपरिक स्वशासन प्रणाली को दोबारा जीवंत करने का प्रयास है. हम जानते हैं कि आदिवासी से आशय वैसे समुदाय से है जो दुनिया में सबसे पुराने हैं. और यदि सबसे पुराने हैं तो उनका अपना सिस्टम होगा. जिसे पारंपरिक स्वशासन प्रणाली कहते हैं.

यहां ग्राम सभा से ही पूरा समुदाय नियंत्रित होता है.

 

भारत आजाद हुआ. संविधान लागू हुआ. 1992 में 72वें संविधान संशोधन द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत हुई. हालांकि, इसके बाद भी आदिवासी इलाकों में अलग व्यवस्था की मांग उठती रही क्योंकि उनकी जीवनशैली, परंपरा, संस्कृति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक तौर-तरीका बाकी दुनिया से अलग है और इसलिए भी दिसंबर 1996 में पेसा कानून लाया गया.

पेसा कानून आदिवासी इलाकों में लोगों को पारंपरिक ग्राम सभा के माध्यम से खुद पर शासन करने का अधिकार देता है. झारखंड के संदर्भ में समझे हैं तो यहां मांझी, मुंडा, मानकी और पाहन जैसे पारंपरिक प्रधान ही स्थानीय स्वशासन के मुखिया होंगे. जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों का अधिकार सुरक्षित रहेगा. माने, यदि आदिवासी इलाके में किसी प्रोजेक्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण करना हो तो ग्राम सभा की मंजूरी लेनी होगी.

ग्राम सभा के परमिशन के बिना आदिवासी जमीन नहीं खरीद सकते. लघु वनोत्पाद पर आदिवासियों का अधिकार होगा. ग्राम सभा की स्थानीय बाजार प्रबंधन करेगी. ग्राम सभा अनुसूचित क्षेत्र में नशीले पदार्थों का उत्पादन, वितरण और बिक्री रोकने के लिए कानून बना सकेगी. कोई भी सरकारी योजना लागू करने के लिए ग्राम पंचायत को पहले ग्राम सभा को भरोसे में लेना होगा.

बताना होगा कि ये कैसे वहां की आदिवासी आबादी के लिए लाभकारी है. मंजूरी मिलेगी तो योजना लागू होगी. झारखंड में पेसा कानून की मांग क्यों होती रही है. समझते हैं.

 

झारखंड आदिवासी बहुल आबादी वाला राज्य है. यहां 32 प्रकार की जनजातियां रहती हैं. संताल, हो, मुंडा, उरांव, असुर, बिरजिया और पहाड़िया जैसे कई जनजातीय समुदाय हैं. सभी जनजातियों की अपनी अलग भाषा, संस्कृति और परंपरा है. अधिकाशं जनजातियां आजीविका के लिए जंगल से मिलने वाले उत्पादों पर निर्भर है. 2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड में 26.2 फीसदी जनजातीय आबादी है.

झारखंड का गठन ही आदिवासी संरक्षण के मुद्दे पर हुआ था. झारखंड की 81 में से 28 विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित है. लेकिन, यहां अब तक पेसा कानून लागू नहीं हो सका है. जबकि, झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 2019 के चुनावी मेनिफेस्टो में इसका वादा किया था. इसी को आधार बनाकर लोबिन हेम्ब्रम सहित अन्य लोग सरकार पर पेसा कानून के मसले पर वादाखिलाफी का आरोप लगाते हैं.

मौजूदा समय में जबकि पूरे झारखंड में जमीनों के अवैध तरीके से खरीद-फरोख्त के मामले सामने आ रहे हैं. धर्मांतरण का मुद्दा गरमाया हुआ है. संताल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठ का दावा किया जा रहा है. तब राज्यपाल का पेसा कानून लागू करने की बात कहना निश्चित रूप से बड़ी बात है.

 

हालांकि, ऐसा नहीं है कि सरकार ने प्रयास नहीं किया. पूर्व मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के समय में जून 2024 को पंचायती राज विभाग ने पेसा नियमावली का ड्राफ्ट तैयार कर लिया था जिसमें कई प्रावधान किए गये हैं. कानून में कहा गया है कि ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता मानकी-मुंडा, पाहन या मांझी जैसे पारंपरिक प्रधान करेंगे. ग्राम सभा की सहमति के बिना जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकेगा. आदिवासी जमीन की खरीद-फरोख्त के लिए भी ग्राम सभा की मंजूरी जरूरी होगी.

यदि अनुसूचित क्षेत्र से पुलिस किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करती है तो 48 घंटे के भीतर ग्राम सभा को सूचित करना होगा. ग्राम सभा आदिवासी जमीन वापस ले सकती है. ग्राम सभा में अन्न कोष, श्रम कोष औऱ नकद कोष का गठन किया जायेगा. दान, प्रोत्साहन राशि, दंड शुल्क, वन उपज, रॉयल्टी, तालाब, बाजार और सैरात से मिलने वाली राशि कोष में जमा होगी. ग्राम सभा अपने पास अधिकतम 10,000 रुपये तक की राशि रख सकती है. बाकी पैसा बैंक में जमा करना होगा. नियमावली का ड्राफ्ट तैयार हो चुका है. इसे कैबिनेट से स्वीकृति के बाद कानून का रूप देने के लिए आगे बढ़ाना था लेकिन यह अभी तक नहीं हो पाया है.

 

गौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र औऱ हाल ही में मध्य प्रदेश ने अपने यहां पेसा कानून लागू किया है. लेकिन, झारखंड में अभी पेसा कानून लागू नहीं किया जा सका है. यहां अक्सर ग्राम पंचायत औऱ ग्राम सभा के बीच टकराव की स्थिति बनती है. कई बार आदिवासी इलाकों में जनजातीय आबादी की सरकार के साथ टकराव की स्थिति बन जाती है.

कई बार झारखंड के अनुसूचित इलाकों में लोग परंपरागत स्थानीय स्वशासन को अपने तरीके से लागू करने की घोषणा कर चुके हैं. ये प्रशासनिक ढांचे के लिए ठीक नहीं है.

जरूरी है कि संवैधानिक प्रावधानों के हिसाब से पेसा कानून लागू हो. आदिवासियों के जल, जंगल औऱ जमीन सहित बाकी वो सभी अधिकार सुरक्षित हों, जिसका वादा सरकार करती आई है.

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