झारखंड में आदिवासी समुदाय कर रहे हैं कुड़मियों की मांग का विरोध, जानें पूरा मामला

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झारखंड में एक बार फिर कुड़मियों ने एसटी में शामिल करने की मांग उठा दी है. कुड़मियों की इस मांग पर बीते एक साल में सरकार ने किसी भी प्रकार से कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है. जहां एक ओर कुड़मी लगातार खुद को एसटी में शामिल करने की मांग कर रहे हैं वहीं एसटी समुदाय के लोग भी अब इनकी मांगों का जमकर विरोध कर रहे हैं.

आउटलुक इंडिया की रिपोर्ट में आईआईटी बॉम्बे के शोधकर्ता कुणाल शाहदेव के बयान के अनुसार -1921 की जनगणना तक, कुड़मी महतो समुदाय को एनिमिस्ट और आदिवासी के रूप में मान्यता दी गई थी. हालाँकि, 1931 में उन्हें इस श्रेणी से हटा दिया गया. द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1941 में कोई जनगणना नहीं की गई. 1950 में, जब संविधान लागू हुआ, तो उन्हें एसटी में शामिल नहीं किया गया. बाद में इसी आधार पर उन्हें ओबीसी में शामिल किया गया.’

कुणाल शाहदेव कहते हैं कि कुमार सुरेश सिंह जैसे मानवविज्ञानी मानते हैं कि कुड़मी-महतो मूल रूप से किसान थे और सामाजिक रूप से आर्थिक रूप से शक्तिशाली समुदाय हैं.वे लंबे समय तक खुद को क्षत्रिय (योद्धा) मानते रहे. अखिल भारतीय कुड़मी क्षत्रिय महासभा की स्थापना 1894 में हुई थी और यह 1930 तक सक्रिय रही. समुदाय ने खुद को मराठा राजा शिवाजी से भी जोड़ा. इसके परिणामस्वरूप तेजी से हिंदूकरण हुआ और उनकी आदिवासी पहचान गायब हो गई. इस प्रकार, 1931 तक, वे हिन्दू जाति में बदल गये.

कुणाल, कुमार सुरेश सिंह के पेपर ‘छोटा नागपुर में महतो-कुर्मी महासभा आंदोलन’ का हवाला देते हुए कहते हैं: “1969 में, विनोद बिहारी महतो के नेतृत्व में शिवाजी समाज का गठन किया गया था. 1973 में, इसने झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी बनाने के लिए अन्य समूहों के साथ विलय कर लिया, और अलग राज्य के लिए झारखंड आंदोलन में शामिल हो गए.समानांतर रूप से, कुड़मियों ने भी 1970 के दशक के मध्य में एसटी दर्जे की मांग उठानी शुरू कर दी”

झारखंड में कुड़मी के एसटी में शामिल होने की मांग लंबे समय से चल रही है

2004 में जब झारखंड में अर्जुन मुंडा क सरकार बनी थी तब मुख्यमंत्री रहते हुए इस मांग को अर्जुन मुंडा ने अपनी कैबिनेट से पारित कर केंद्र सरकार को भेज चुके हैं. 23 नवंबर 2004 को झारखंड की तत्कालीन अर्जुन मुंडा की सरकार ने कुर्मी जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की सिफारिश की थी. वहीं इससे पहले 22 अगस्त 2003 को जमशेदपुर की तत्कालीन भाजपा सांसद आभा महतो के नेतृत्व में झारखंड के सभी सांसदों ने तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी को ज्ञापन सौंपा था. इसमें कुर्मी जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की मांग शामिल थी. ज्ञापन में भाजपा के आठ एवं कांग्रेस के दो लोकसभा सदस्य तथा भाजपा के पांच राज्यसभा सदस्यों ने हस्ताक्षर किए थे.

कुड़मी समाज के इस आंदोलन को अब आजसू पार्टी ने भी अपना समर्थन दिया है. इस संबंध में साल 2022 में गिरिडीह के आजसू सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी ने कहा कि- कुड़मी समाज को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के लिए आंदोलन लंबे समय से चल रहा है. आजसू शुरू से ही इसके लिए लड़ रही है. उन्हों ने कहा कि मैं राष्ट्रपति एवं गृहमंत्री से मिलकर इसकी मांग कर चुका हूं. इस मुद्दे पर हेमंत सरकार को अपना स्टैंड साफ करना चाहिए.

कुड़मियों की इस मांग से अब झारखंड में सत्तारुढ़ पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा सबसे अधिक दुविधा में है. झामुमो के लिए ना तो इस आंदोलन को समर्थन करते बन रहा है और ना ही विरोध.

आदिवासी कुर्मी संघर्ष मोर्चा ने पूर्व सांसद शैलेंद्र महतो के नेतृत्व में आठ फरवरी 2018 को तत्कालीन मुख्यमंत्री रघुवर दास को ज्ञापन दिया था। इसमें कुर्मी जाति को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने की मांग की थी। ज्ञापन में झामुमो-भाजपा-कांग्रेस के 41 विधायकों व सांसदों के हस्ताक्षर थे.

झारखंड में कुर्मी नेता दावा करते हैं कि उनकी जनसंख्या करीब 22 प्रतिशत है। इसे बहुत बड़े वोट बैंक के तौर पर देखा जाता है। राज्य की 81 विधानसभा और 12 लोक सभा की सीटों में से कई सीट ऐसी हैं,जहां कुडमी निर्णायक भूमिका में हैं. शायद इसी वजह से आज तक किसी नेता ने इस मांग को सिरे से खारिज नहीं किया है.

आदिवासी सेंगल अभियान के राषट्रीय अध्यक्ष व झारखंड के पूर्व सांसद सालखन मुर्मू कुड़मियों की इस मांग का खुला विरोध करते हैं उनका कहना है कि कुड़मी कभी आदिवासी थे ही नहीं. और अगर कुड़मी समाज यह दावा करता है कि वे 1950 के पहले एसटी में शामिल थे तो उन्हें अपने तथ्यों और तर्कों के साथ सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए. बेवजह बखेड़ा करना ठीक नहीं है. कुड़मी समाज या किसी अन्य समाज को एसटी में शामिल करने से पूर्व भारत सरकार और अन्य प्रमुख राजनीतिक दलों को जरूर गंभीरता से लेना चाहिए. केवल वोट बैंक के लिए असली आदिवासियों का कत्ल न हो जाए. इसे आदिवासी बर्दाश्त नहीं करेंगे.

सालखन कहते हैं कि दिवंत शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो का दावा था कि हम 1950 के पहले तक एसटी में शामिल थे, ये दमदार नहीं लगता है. क्योंकि 1931 की जनगणना में भी अंग्रेजों द्वारा जारी सेंसस ऑफ़ इंडिया- 1931 वोल्यूम-7, बिहार एंड उड़ीसा, पार्ट वन रिपोर्ट द्वारा डब्लू जी लेसी में इंपीरियल टेबल 18 और 17 में इनका नाम नहीं है. उसी प्रकार बंगाल डिस्ट्रिक्ट गैजेटियर – संताल परगना द्वारा एस एस ओ मोलली-1910 के प्रकाशित सेंसस आफ 1901 में भी इनका जिक्र हिंदू के साथ कालम ‘बी’ में कृषक जाति के रूप में दर्ज है. जबकि एबोरिजिनस के रूप में संताल परगना में केवल संताल, सौरिया पहाड़िया और माल पहाड़िया का नाम दर्ज है. कुड़मी-महतो का पुराना दावा कि हम 1913 में एसटी थे,यह भी संदेहास्पद है. चूंकि 2 मई 1913 के आर्डर नंबर 550 का संबंध इंडियन सक्सेशन एक्ट-1865 से है, ना कि यह शिड्यूल ट्राइब (एसटी) चिह्नित करने से संबंधित है.

वहीं झारखंड की पूर्व शिक्षा मंत्री गीता श्री उरांव भी कुड़मियों के इस मांग को गलत ठहरा रही हैं उनका कहना है कि कुड़मी राज्य के राजनीति में आरक्षण के लोभ में एसटी में शामिल होना चाहते हैं. गीता श्री का कहना है कि चूंकि झारखंड में केवल एसटी ही मुख्यमंत्री बन सकता है इसलिए कुड़मी द्वारा खुद को एसटी में शामिल करने की मांग की जा रही है.

बता दें झारखंड मे आदिवासियों के लिए विधानसभा की 28 तथा लोकसभा की चार सीटें आरक्षित हैं. यहां आदिवासियों को 26 फ़ीसदी आरक्षण हासिल है जबकि कुड़मी पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं इस वर्ग को केवल 14 प्रतिशत आरक्षण ही प्राप्त है. साथ ही पिछड़ा वर्ग में अन्य कई जातियां शामिल हैं.

फिलहाल कुड़मियों की इस मांग पर राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का कोई भी बयान सामने नहीं आया है. राज्य सरकार ने न तो इसका समर्थन किया और ना ही खुला विरोध . राज्य सरकार के लिए ये दुविधा की घड़ी है क्योंकि अगले साल झारखंड में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. झारखंड में आदिवासी और कुड़मियों के वोट सबसे अधिक हैं. अगर सरकार कुड़मियों के पक्ष में फैसला लेती है तो राज्य के आदिवासी नाराज हो जाएंगे और अगर सरकार कुड़मियों की मांग नहीं मानती है तो कुड़मी वोट बैंक अपना रुख बदल लेंगे.

बता दें किसी भी जाति को ST की सूची में शामिल करने की प्रक्रिया में सबसे पहले संबंधित राज्य सरकारों की सिफारिश की जरुरत होती है. जिसे बाद में जनजातीय मामलों के मंत्रालय को भेजा जाता है, जो समीक्षा करता है और अनुमोदन के लिये भारत के महापंजीयक को इसे प्रेषित करता है.

वहीं फिलहाल इस मामले से केंद्र सरकार अपना पल्ला झाड़ते नजर आ रही है. केंद्रीय जनजाती मामलो के मंत्री अर्जुन मुंडा ने इस बार गेंद राज्य सरकार के पाले में फेंक दी है. बीते कल केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा ने कुड़मियों के एसटी में शामिल होने की मांग को लेकर कहा कि कुड़मी को आदिवासी का दर्जा देने का कोई मामला केंद्र सरकार के पास लंबित नहीं है. यहां जो लोग बोल रहे हैं, उनका विचार होगा. अभी यह राज्य सरकार का मामला है.

मंत्री के इस बयान के बाद कुड़मी समाज में केंद्र सरकार के प्रति भी काफी आक्रोश है.
अब देखने वाली बात यह होगी कि 2024 के चुनाव से पहले इस मामले पर कोई कार्रवाई हो पाएगी या यह मामला अगले चुनाव के लिए आगे शिफ्ट कर दिया जाएगा.

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