क्या हार में क्या जीत में किंचित नहीं भयभीत मैं,
कर्तव्य पथ पर जो भी मिला यह भी सही वो भी सही ,वरदान नहीं मानूंगा
हो कुछ पर हार नहीं मानूंगा
साल था 1988 भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी कैंसर जैसी गंभीर बिमारी से पीड़ित थे. न्यूयॉर्क के अस्पताल में मौत से लड़ते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने यह कविता लिखी थी. उसे छापने के लिए उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका धर्मयुग के संपादक के पास भेज दिया.साथ में एक नोट भी भेजा, नोट में लिखा था- ये लाइनें कविता के लायक तो नहीं, लेकिन मेरी जिंदगी का दस्तावेज है. बाद में यह कविता अटल जी की सर्वश्रेष्ठ कविता बनी.
अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय नेता, प्रखर राजनीतिज्ञ, नि:स्वार्थ सामाजिक कार्यकर्ता, सशक्त वक्ता, कवि, साहित्यकार, पत्रकार और बहुआयामी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे, आज अटल जी की 5वीं पुण्यतिथि है. 5 साल पहले 16 अगस्त 2018 को अटल जी हमें छोड़ कर चले गए.लेकिन आज 5 सालों के बाद भी अटल जी सिर्फ सशरीर हमारे बीच नहीं हैं, उनके विचार, किस्से कहानियों ने उन्हें हमारे बीच आज भी जीवित रखा है.
वैसे तो अटलजी की महानता की गाथा गाते किसी के कलम नहीं थकते हैं और कई किताबों और रिपोर्ट्स में उनकी किस्से कहानियों के भरमार हैं एक वीडियों में हम सभी किस्सों को समाहित नहीं कर सकेंगे. आज की वीडियो में हम आपको उनके राजनीतिक और नीजि जीवन से जुड़े कुछ दिलचस्प किस्सों से आपको रुबरु कराएंगे.
अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर, 1924 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में हुआ था. वाजपेयी जी ने कानपुर के डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में एम॰ए॰ की थी. वाजपेयी जी ने अपने जीवन के 4 दशक राजनीति में गुजारे थे. 1952 में पहली बार लोकसभा चुनाव में मैदान में उतरे थे. 1996 में पहली बार प्रधानमंत्री बने हालांकि यह कार्यकाल काफी छोटा था. 16 मई से 1 जून 1996 तक ही चला . फिर 1998 में प्रधान मंत्री बने हालांकि यह कार्यकाल भी पूरा ना हो सका .जिसके बाद 19 मार्च 1999 से 22 मई 2004 तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे यह पहली बार था जब भारत में किसी गैर-कांग्रेसी सरकार ने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया हो.
न्यूज वेबसाइट सत्याग्रह में हिमांशु शेखर की छपी रिपोर्ट अटल जी के सरल स्वभाव और त्वरित बुद्धि का परिचय देती है.रिपोर्ट की मानें तो यह बात उन दिनों की है जब अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति की शुरुआत कर ही रहे थे.साल था 1953, अटल जी को मुंबई में जनसंघ की एक जनसभा को संबोधित करना था. जब वे सभा के लिए तैयार हुए तो देखा कि जो कुर्ता उन्होंने पहना है वह आस्तीन के पास से फटा हुआ था. उन्होंने अपना दूसरा कुर्ता निकाला. लेकिन वह भी गले के पास फटा हुआ निकला. वाजपेयी बस दो ही कुर्ते लेकर बंबई गए थे और वे दोनों के दोनों फटे हुए थे. अब कोई रास्ता नहीं था. लेकिन अटल जी की त्वरित बुद्धि ने वहां काम किया उन्होंने फटे हुए कुर्तों में से एक के ऊपर जैकेट पहन ली. इसके बाद सभा में फटे कुर्ते के बारे में किसी को पता तक नहीं चला.
इसी रिपोर्ट में अटल जी के बारे में एक और किस्सा बताया गया है. आपातकाल के बाद 1977 में जब मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो मंत्रिमंडल में अटल बिहारी वाजपेयी भी शामिल हुए. अटल जी उस मंत्रिमंडल में विदेश मंत्री बने थे. अटल जी को विदेश नीतियों में काफी ज्यादा दिलचस्पी थी. इसलिए जब मोरारजी देसाई ने अटल जी के सामने मोराजी देसाई ने उनके सामने रक्षा या विदेश मंत्रालय में से एक विभाग को चुनने के लिए कहा तो वाजपेयी को विदेश मंत्रालय चुनने में एक सेकेंड का भी समय नहीं लगा. विदेश मंत्री बनने के बाद जब वे पहले दिन विदेश मंत्रालय पहुंचे तो उन्होंने देखा कि दफ्तर की एक दीवार से कुछ गायब है. वाजपेयी ने अपने सचिव से कहा कि यहां तो पंडित जवाहरलाल नेहरू की तस्वीर लगी होती थी. पहले भी कई बार मैं इस दफ्तर में आया हूं, अब कहां गई? पता चला कि जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो विदेश मंत्रालय के अफसरों को लगा कि जनसंघ से आने वाले नए विदेश मंत्री को नेहरू की तस्वीर अच्छी नहीं लगेगी. इसलिए उन्हें खुश करने के लिए अधिकारियों ने नेहरू की तस्वीर हटा दी थी. इसके बाद वाजपेयी ने विदेश मंत्रालय के अफसरों को जितनी जल्दी हो सके उस तस्वीर को फिर से लगाने का आदेश दिया.
साल 1993 में अटल जी को हिमाचल प्रदेश में चुनाव को लेकर धर्मशाला जाना था.इसी क्रम में अटल बिहारी वाजपेयी कानपुर के जेके सिंघानिया कंपनी के एक छोटे विमान में भाजपा नेता बलबीर पुंज और दो लोगों के साथ सफ़र कर रहे थे. सफर के दौरान वाजपेयी फ्लाइट में सो रहे थे. तभी विमान का को-पायलट कॉकपिट से निकला और उसने पुंज से कहा, “क्या आप पहले कभी धर्मशाला आए हैं?” पुंज ने पूछा, “लेकिन आप ये क्यों पूछ रहे हैं?” पायलट ने जवाब दिया, “इसलिए क्योंकि हमें धर्मशाला मिल नहीं रहा. एटीसी से भी कोई संपर्क नहीं हो पा रहा और हमारे पास जो नक्शा है, वो दूसरे विश्व युद्ध के समय का है और इससे कुछ भी मेल खाता नहीं दिख रहा.” इस पर पुंज ने को-पायलट से कहा, “बस इसे चीन मत ले जाना.” इतने में वाजपेयी की आंख खुली तो उन्होंने कहा, “सभा का समय हो रहा है, हम कब उतर रहे हैं?” पुंज ने उन्हें सब हाल कह सुनाया तो जवाब में वाजपेयी बोले, “यह तो बहुत बढ़िया रहेगा. ख़बर छपेगी- वाजपेयी डेड. गन कैरेज में जाएंगे.” पुंज ने कहा, “आपके लिए तो ठीक है, मेरा क्या होगा?” वाजपेयी मजाकिया अंदाज में बोले, “यहां तक साथ आए हैं तो वहां भी साथ चलेंगे.” फिर कहा, “जागते हुए अगर क्रैश हुआ तो बहुत तक़लीफ़ होगी.” इतना कहकर वो दोबारा सो गए.
बाद में इंडियन एयरलाइंस के एक विमान से संपर्क हुआ और वाजपेयी के विमान को पीछे आकर कुल्लू में लैंडिंग कराने का निर्देश दिया गया. विमान धर्मशाला के बजाय कुल्लू में उतरा. जनसभा छूट ही चुकी थी, इसलिए वाजपेयी बिना किसी फ़िक्र के गेस्ट हाउस में जाकर सो गए.
अटल बिहारी वाजपेयी का अपनी मातृभूमि ग्वालियर से काफी गहरा नाता था. वाजपेयी अक्सर दिल्ली से ग्वालियर बिना किसी को कुछ बताए चले जाते थे और वहां की सड़कों पर बेफिक्र होकर यहां-वहां घूमते रहते थे. यह बात उन दिनों की है जब राजमाता सिंधिया वाजपेयी की पार्टी में आई ही थीं. एक दिन उन्हें खबर मिली कि अटल जी छाता लगाए ग्वालियर के पाटनकर बाजार से गुजर रहे हैं. यह सुनते ही राजमाता सिंधिया ने एक स्थानीय नेता को फोन लगाकर कहा कि कैसी पार्टी है आपकी, पार्टी के सबसे बड़े नेता सड़क पर पैदल घूम रहे हैं, क्या उनके लिए गाड़ी का इंतजाम नहीं हो सकता? थोड़ी देर बाद राजमाता सिंधिया के पास उस नेता का फोन आया. उसने उन्हें बताया कि वाजपेयी ने गाड़ी सधन्यवाद वापस भेज दी है और कहा है कि ग्वालियर में उन्हें गाड़ी की जरूरत नहीं पड़ती.
अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी भाषा के बड़े समर्थक थे. उन्होंने अपने भाषणों में कभी अंग्रेजी को हावी होने नहीं दिया. जब अटल जी सदन में बोलते थे तब पक्ष के साथ साथ विपक्ष भी उनकी हिंदी के मुरीद हो जाते थे. बीबीसी की रिपोर्ट बताती है कि अटल बिहारी वाजपेयी 1957 में पहली बार सांसद बने तब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री हुआ करते थे. उस वक्त अटल जी को संसद में बोलने का बहुत वक़्त नहीं मिलता था, लेकिन अच्छी हिंदी से उन्होंने अपनी पहचान बना ली थी. नेहरू भी वाजपेयी की हिंदी से प्रभावित थे. वह उनके सवालों का जवाब संसद में हिंदी में ही देते थे. वहीं 1965 में जब भाषा के सवाल पर संसद में बहस चल रही थी, तब अन्ना ने कहा था कि, “हिंदी को लेकर हमारा विरोध क्यों है? मैं इसे साफ़ शब्दों में बयां करना चाहता हूं. हम किसी भी भाषा के ख़िलाफ़ नहीं हैं. ख़ास तौर से जब मैं अपने दोस्त श्रीमान वाजपेयी को बोलते हुए सुनता हूं तो मुझे लगता है कि हिंदी तो बहुत मीठी ज़बान है.”
इस कड़ी का अंत हम वाजपेयी जी की ही एक कविता से करेंगे, तो गौर से सुनिए कि वाजपेयी जी लिखते हैं-
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करुँगा।
जाने कितनी बार जिया हूँ,
जाने कितनी बार मरा हूँ।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूँ।
अन्तहीन अंधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूँगा।
मैंने जन्म नहीं माँगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।
बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी?
पूर्व जन्म के पूर्व बसी—
दुनिया का द्वारचार करूँगा।
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करूँगा।