हसदेव अरणय में पेड़ो कि कटाई का क्यों हो रहा विरोध, जाने क्या है मामला ?

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जंगल के महत्व को कम नहीं आंका जा सकता. हमारे अस्तित्व में जंगलों की अहम भूमिका है, सांस लेने वाली हवा से लेकर उपयोग में आने वाली लकड़ी तक. लेकिन फिर भी, वनों पर हमारी निर्भरता के बावजूद, हम उन्हें खत्म होने दे रहे हैं. दरअसल, छत्तीसगढ़ का हसदेव अरणय जंगल इन दिनों चर्चा में है. यहां के जंगलों को बचाने के लिए स्थानीय लोग प्रदर्शन कर रहे हैं. सोशल मीडिया पर #HasdeoBachao का अभियान चलाया जा रहा है. लोग अलग-अलग तरीकों से अपना विरोध दर्ज करा रहे हैं. कोई पेड़ से लिपटकर ‘चिपको आंदोलन’ जैसा संदेश देने की कोशिश कर रहा है. तो कोई धरना प्रदर्शन कर रहा है. आज हम आपको हसदेव अरण्य, में हो रहे वृक्षों की कटाई से लेकर पुरे मुद्दे को विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे .

क्या है  हसदेव अरण्य दरअसल, यह जंगल छत्तीसगढ़ के उत्तरी कोरबा, दक्षिणी सरगुजा और सूरजपुर जिले के बीच में स्थित है. लगभग 1 लाख 70 हजार हेक्टेयर में फैला यह जंगल अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है. वाइल्डलाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया की साल 2021 की रिपोर्ट के मुताबिक, हसदेव अरण्य में गोंड, लोहार और उरांव और अन्य आदिवासी जातियों के 10 हजार लोगों का घर है. यहां 82 तरह के पक्षी, दुर्लभ प्रजाति की तितलियां और 167 प्रकार की पेड़-पौधे पाई जाती हैं. इनमें से 18 प्रजाति के पेड़ पौधे अपने अस्तित्व के खतरे से जूझ रही हैं.

बता दें कि हसदेव अरणय पर छत्तीसगढ़ की सरकार ने 6 अप्रैल 2022 को एक प्रस्ताव की मंजूरी दी थी. इसके तहत, हसदेव क्षेत्र में स्थित परसा कोल ब्लॉक परसा ईस्ट और केते बासन कोल ब्लॉक का विस्तार किया जाएगा. जिसके लिए यहां के जंगलों को काटा जाएगा और फिर इन जगहों पर कोयले की खदानें बनाकर कोयला निकाला जाएगा.

वहीं स्थानीय लोग और यहाँ रहने वाले आदिवासी इस आवंटन का विरोध कर रहे हैं.
मालूम हो कि पिछले एक दशक से हसदेव के अलग-अलग इलाकों में जंगल काटने का विरोध चल रहा है. कई स्थानीय संगठनों ने जंगल बचाने के लिए संघर्ष किया है और आज भी कर रहे हैं. विरोध के बावजूद कोल ब्लॉक का आवंटन कर दिए जाने की वजह से स्थानीय लोग और परेशान हो गए हैं. आदिवासियों को अपना घर और जमीन गंवाने का डर सता रहा है. वहीं, हजारों परिवार अपने विस्थापन को लेकर चिंतित हैं.

छत्तीसगढ़ और सूरजपुर जिले में परसा कोयला खदान का इलाका 1252.447 हेक्टेयर का है. इसमें से 841.538 हेक्टेयर इलाका जंगल का है. यह खदान राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को दिया गया है. राजस्थान की सरकार ने अडानी ग्रुप से करार करते हुए खदान का काम उसके हवाले कर दिया है. इसके अलावा, राजस्थान को ही केते बासन का इलाका भी खनन के लिए मिला है.

बता दें कि इसके खिलाफ हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस भी चल रहा है. अब छत्तीसगढ़ सरकार ने खदानों के विस्तार को मंजूरी दे दी है. पहले से ही काटे जा रहे जंगलों को बचाने में लगे लोगों के लिए यह विस्तार चिंता का सबब बन गया है. इसके लिए, स्थानीय लोग जमीन के लिए अदालत तक लड़ाई लड़ रहे हैं.

अगर खदान का विस्तार होता है तो, इससे आधा दर्जन गांव सीधे तौर पर और डेढ़ दर्जन गांव आंशिक तौर पर प्रभावित होंगे. लगभग 10 हजार आदिवासियों को डर है कि वे अपना घर गंवा देंगे. अपने घर बचाने के लिए आदिवासियों ने दिसंबर 2021 में पदयात्रा और विरोध प्रदर्शन भी किया था, लेकिन सरकार नहीं मानी और अप्रैल में आवंटन को मंजूरी दे दी गई.

वहीं साल 2018 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश के केवल 1 फीसदी हाथी ही छत्तीसगढ़ में हैं, लेकिन हाथियों के खिलाफ अपराध की 15 फीसदी से ज्यादा घटनाएं यहीं दर्ज की गई हैं. अगर नई खदानों को मंजूरी मिलती है तो जंगलो की कटाई बड़े पैमाने पर होगी फिर हाथियों के रहने की जगह खत्म हो जाएगी और इंसानों से उनका आमना-सामना और संघर्ष बढ़ जाएगा. साथ ही यहां के पेड़ पौधो के उपर भी सकंट मडंरा रहा है.

हसदेव अरण्य क्षेत्र में पहले से ही कोयले की 23 खदाने मौजूद हैं. साल 2009 में केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय ने इसे ‘नो-गो जोन’ यानी वैसी जगह जो प्रतिबंधित हो, की कैटगरी में डाल दिया था. इसके बावजूद, कई माइनिंग प्रोजेक्ट को मंजूरी दी गई क्योंकि नो-गो नीति कभी पूरी तरह लागू नहीं हो सकी. यहां रहने वाले आदिवासियों का मानना है कि कोल आवंटन का विस्तार अवैध है.

आदिवासियों के मुताबिक, पंचायत एक्सटेंशन ऑन शेड्यूल्ड एरिया (पेसा) कानून 1996 के तहत बिना उनकी मर्जी के जमीन पर खनन नहीं किया जा सकता. पेसा कानून के मुताबिक, खनन के लिए पंचायतों की मंजूरी ज़रूरी है. आदिवासियों का आरोप है कि इस प्रोजेक्ट के लिए जो मंजूरी दिखाई जा रही है वह फर्जी है. आदिवासियों का कहना है कि कम से कम 700 लोगों को उनके घरों से विस्थापित किया जाएगा और 840 हेक्टेयर घना जंगल नष्ट हो जाएगा.
जंगलों को काटे जाने से बचाने के लिए स्थानीय लोग, आदिवासी, पंयायत संगठन और पर्यावरण कार्यकर्ता एकसाथ आ रहे हैं. स्थानीय स्तर पर विरोध प्रदर्शन से लेकर अदालतों में कानूनी लड़ाई भी लड़ी जा रही है. ताकि प्रोजेक्ट को रोका जाए और जंगलों को कटने से बचाया जा सके.

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