बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मी में कन्हैया कुमार अकस्मात हॉट टॉपिक क्यों बन गये हैं?
क्या कांग्रेस पार्टी ने कन्हैया कुमार को बिहार विधानसभा चुनाव से पहले नौकरी दो-पलायन रोको यात्रा के जरिये लॉन्च करके, युवा तेजस्वी के नेतृत्व को चुनौती दी है? क्या कन्हैया कुमार के जरिये कांग्रेस पार्टी आरजेडी को यह संदेश देना चाहती है कि इस गठबंधन में वो छोटा भाई बनकर नहीं रहना चाहती?
क्या, कन्हैया कुमार के जरिये कांग्रेस यह बताना चाहती है कि बिहार प्रांत में जातिगत जनगणना की तर्ज पर महागठबंधन में भी वह संख्याबल, उम्मीदवारी और ताकत के मामले में समान भागीदारी चाहती है?
आखिर क्यों कन्हैया कुमार आरजेडी और तेजस्वी यादव पर तमाम सवालों को टाल जाते हैं?
क्या, कन्हैया कुमार शीर्ष नेतृत्व के निर्देश पर यह संदेश देना चाहते हैं कि आगामी विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी, आरजेडी की पिछलग्गू नहीं बल्कि सहगामी बनकर उतरना चाहती है? क्या कन्हैया कुमार के जरिये कांग्रेस पार्टी, आरजेडी के सहयोग के इतर अपना स्वतंत्र जमीन तलाशना चाहती है?
क्या कांग्रेस पार्टी, बिहार में सवर्ण और मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी पुरानी साख वापस पाना चाहती है, जिनके बीच कन्हैया कुमार काफी लोकप्रिय हैं?
आखिर क्यों, कन्हैया की एंट्री ने आरजेडी और तेजस्वी यादव को इतना असहज कर दिया है.
कन्हैया पर बिहार में कांग्रेस को मजबूत करने की जिम्मेदारी
क्या कन्हैया कुमार के जरिये कांग्रेस पार्टी बिहार की सियासत में उस पॉजिशन पर पहुंचना चाहती है जहां वो, सीट शेयरिंग में बेहतर नेगोसिएशन कर पाये.
दरअसल, खबरें हैं कि आरजेडी बिहार की 243 में से कांग्रेस को 50 सीटो से ज्यादा नहीं देना चाहती जबकि कांग्रेस 70 से कम कुछ भी मानने को तैयार नहीं है.
क्या कांग्रेस पार्टी सवर्ण और मुस्लिम मतदाताओं में अपनी पैठ मजबूत करके, सीट शेयरिंग पर ज्यादा हासिल करने की जुगत में लगी है. क्या कन्हैया कुमार को बिहार विधानसभा चुनाव से पहले यूं लॉन्च करना कांग्रेस की उस रणनीति की पराकाष्ठा है जिसमें पार्टी के शीर्ष नेताओं मसलन राहुल गांधी और कृष्णा अल्लावारु ने कई मुद्दों पर अलग स्टैंड लिया है.
याद कीजिए कि किस तरह से राहुल गांधी ने बिहार में जातीय जनगणना के आंकड़ों को फर्जी कह दिया था, यह जानते हुए कि ये रिपोर्ट तब प्रकाशित की गई थी जब आरजेडी और कांग्रेस पार्टी भी नीतीश सरकार में सहयोगी थे. पिछले करीब 6 माह से तेजस्वी यादव ने उस रिपोर्ट को प्रमुख मुद्दा बनाया हुआ और राहुल गांधी ने उसे ही झुठला दिया था.
कांगेस बिहार में खोई हुई जमीन तलाशने की कवायद में जुटी
दरअसल, कांग्रेस पार्टी कभी बिहार में सबसे ताकतवर थी. आजादी के बाद करीब 3 दशक तक बिहार में कांग्रेस पार्टी की ही सरकार रही. ये एकाधिकार तब तक रहा जब तक बिहार में आरजेडी या यूं कहिए कि लालू प्रसाद यादव का उभार नहीं हुआ था.
लालू के बाद नीतीश आये. नीतीश कुमार कभी बीजेपी तो कभी आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बनाते रहे. ऐसी कुछ सरकारों का हिस्सा रही लेकिन हमेशा छोटी भाई की भूमिका में.
कौन सा सियासी दल किसी प्रदेश में अपना स्वतंत्र अस्तित्व नहीं चाहता.
कौन नहीं चाहता कि उसकी जमीन मजबूत हो. उसका जनाधार बड़ा हो. जाहिर है कि कांग्रेस पार्टी को भी बड़ा बनना है. बिहार कांग्रेस के कई नेताओं ने मुक्तकंठ से यह बात स्वीकार भी की है कि, पार्टी बिहार में कन्हैया के आने से मजबूत होगी क्योंकि यूथ में उनकी अच्छी पकड़ है.
तेजस्वी के सामने कन्हैया को चेहरा बनाने की हो रही कोशिश
सियासी जानकारों का मानना है कि लालू यादव के बाद तेजस्वी यादव ही आरजेडी का चेहरा हैं.
आरजेडी विधानसभा में संख्याबल के लिहाज से महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी है. तेजस्वी इसका नेतृत्व कर रहे हैं तो जाहिर है कि वह गठबंधन का भी नेतृत्व कर रहे हैं.
आऱजेडी उनको सीएम चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट भी करती है.
कांग्रेस निश्चित रूप से देश में दूसरी बड़ी पार्टी है. वो भी चाहेगी कि बिहार में उसका भी चेहरा हो. तेजस्वी के मुकाबले, बिहार के ही बाशिंदे और सवर्ण जाति से आने वाले कन्हैया कुमार से मुफीद चेहरा दूसरा कोई और नहीं हो सकता था.
कन्हैया को भले ही चुनावी राजनीति में सफलता न मिली हो लेकिन, उनकी मास अपील को खारिज नहीं किया जा सकता. यह कांग्रेस की ठोस रणनीति ही है कि कन्हैया कुमार को उसी बेरोजगारी और पलायन के मुद्दे के साथ मैदान में उतारा गया है, जिस पर तेजस्वी यादव पिछले 1 साल से हर मंच पर बोल रहे हैं.
बिहार कांग्रेस और आरजेडी में चल रही है वर्चस्व की लड़ाई
सियासी जानकार कहते हैं कि ये वर्चस्व की लड़ाई भी है.
कांग्रेस बड़े भाई की नहीं भी तो कम से कम बराबरी का दर्जा चाहती है. हाल ही में पटना में आयोजित एक रैली में चिराग पासवान ने कहा था कि महागठबंधन के घटक दलों में वर्चस्व की लड़ाई चल रही है. संभावना है कि कांग्रेस पार्टी अलग होकर चुनाव लड़ेगी. पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व समझ गया है कि अकेले चुनाव लड़ने में फायदा है.
हालांकि बीजेपी इससे इत्तेफाक नहीं रखती.
हाल ही में हरियाणा में बीजेपी नेताओं की एक बैठक में यह बात सामने आई कि यदि कांग्रेस अकेले लड़ी तो पार्टी को नुकसान होगा. तर्क ये था कि कांग्रेस की तरफ सवर्ण मतदाता हैं. वे बीजेपी के भी कोर वोटर हैं. यदि कांग्रेस आरजेडी के साथ मिलकर चुनाव लड़ती है तो ये वर्ग बीजेपी को वोट करता है लेकिन यदि अलग लड़ी तो कांग्रेस के पाले में जायेगा.
मुस्लिम तो खैर, बीजेपी को हराने वाले कैंडिडेट की ओर ही जायेगा. तो बीजेपी चाहती है कि कांग्रेस, आरजेडी के साथ मिलकर ही चुनाव लड़े. इस मुद्दे पर कन्हैया के आने के बाद आरजेडी भी असहज हो गयी है.
कन्हैया कुमार के आगमन से असहज क्यों है आरजेडी
दरअसल, कन्हैया कुमार के सवर्ण होने पर उस वर्ग में कांग्रेस के प्रभाव बढ़ने की उम्मीद तो है ही, सियासी जानकारों का मानना है कि उनकी मुस्लिम मतदाताओं में भी अच्छी पकड़ है. ये मुस्लिम मतदाता वर्ग फिलहाल आऱजेडी और तेजस्वी के साथ है लेकिन कन्हैया की मौजूदगी से कांग्रेस पार्टी की ओर भी शिफ्ट हो सकती है.
वैसे भी कांग्रेस पार्टी मानती है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी ने उसे उसकी मनपसंद और जनाधार वाली सीटें नहीं दी. इस बार यदि थोपी गयी सीटें मिली तो कांग्रेस अलग चुनाव लड़ सकती है.
विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को नहीं मिलेगी 50 से ज्यादा सीट!
गौरतलब है कि 2020 के विधानसभा चुनाव में महागठबंधन ने कांग्रेस पार्टी को 243 में से 70 सीटें दी थी लेकिन पार्टी केवल 19 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई.
कांग्रेस ने तर्क दिया कि उसे जनाधार के हिसाब से सीट नहीं मिली.
कांग्रेस प्रवक्ता ज्ञान रंजन ने कहा कि इस बार 70 सीटों से कम पर नहीं मानेंगे. मनपसंद सीट भी चाहिए. थोपी हुई सीटों पर चुनाव नहीं लड़ेंगे.
हालांकि, आरजेडी कांग्रेस को 50 से ज्यादा सीट देने को राजी नहीं है. वह भाकपा (माले) को 5 सीटें ज्यादा देने को तैयार है. दरअसल, 2020 में 19 सीटों पर लड़ी लेफ्ट पार्टी 12 सीट पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही.
कांग्रेस क्या अकेले चुनाव लड़ सकती है?
कांग्रेस और आरजेडी ने बिहार में अब तक साझा नहीं किया मंच
ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि मजबूरी या जरूरतों के मुताबिक ही सही, एनडीए के घटक दल एक मंच पर आकर एक सुर में बात करते हैं.
जीतनराम मांझी की हम पार्टी, चिराग पासवान की लोजपा, बीजेपी और जेडीयू एनडीए गठबंधन के तौर पर चुनावी समर में कूदे हैं लेकिन कांग्रेस और आरजेडी साथ होकर भी अभी तक मंच पर साथ नहीं दिखे हैं.
जातिगत जनगणना से लेकर माई बहिन योजना के ऐलान तक में, दोनों ही दलों में गहरे मतभेद हैं. इस बीच कन्हैया कुमार के आगमन ने आरजेडी औऱ तेजस्वी यादव के पेसानी पर बल ला दिया है.
तेजस्वी यादव वैसे भी कन्हैया के साथ मंच साझा करने में बहुत सहज नहीं रहे हैं. इसकी बानगी कुछ वर्ष पूर्व पटना में दिखी थी जब एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनाए जाने के बाद भी तेजस्व यादव नहीं पहुंचे क्योंकि उनको कन्हैया कुमार के साथ मंच साझा करना था.
हालांकि, आरजेडी असहजता की बात से इनकार करती है.
आरजेडी के प्रवक्ताओं का कहना है कि कन्हैया के आने से यदि कांग्रेस मजबूत होती है तो महागठबंधन मजबूत होगा. हमें असहजता क्यों होगी. लेकिन, इनके दावों से इतर कन्हैया और तेजस्वी यादव एक दूसरे पर पूछे गये सवाल टाल जाते हैं. इसका क्या मतलब निकाला जायेगा. बिहार की सियासत फिलहाल काफी हलचल वाली है.
अभी बहुत कुछ होना बाकी है.