RJD और कांग्रेस में नहीं बनी बात? Tejashwi Yadav अकेले लड़ेंगे Bihar Vidhansabha Chunav!

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बिहार में कांग्रेस ने हाल में जो कदम उठाए हैं, उससे यह तो साफ है कि कांग्रेस बदल रही है। कांग्रेस के काम करने का तरीका, उनकी रणनीति, संगठन के लोग, दायित्व, उद्देश्य…सबकुछ बदल रहा है। अब तक जो पार्टी बिहार में राजद की छाया में नजर आ रही थी, वो खुद की खोई जमीन को तलाश करती हुई नजर आ रही है। एक महीने पहले जब कांग्रेस ने अपना प्रभारी बदला, तो पहली बार हुआ जब कोई नया प्रभारी लालू यादव से मिलने उनके घर पर नहीं गए। इनके पहले सभी प्रभारी लालू दरबार पर जा कर मथा जरूर टेकता था। लेकिन कृष्णा अल्लावरू अब तक लालू से मिलने नहीं गए हैं। यहीं से लगने लगा था कि बिहार को लेकर कांग्रेस की योजना अलग है। यही हुआ भी।

कृष्णा अल्लावरू के फैसले से नाराज है राजद ?

कृष्णा अल्लावरू के आने के एक महीने बाद दो बड़े घटनाक्रम हुए, पहला तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह से बिना सहमित लिए उन्हीं की जाति के नेता कन्हैया कुमार की बिहार में ग्रैंड एंट्री और दूसरी अखिलेश सिंह को हटाकर दलित नेता राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी। जबकि इन दोनों ही निर्णय से लालू परिवार खुश नहीं है। कन्हैया वाला एंगल तो आपको पता ही है, तेजस्वी के सामने कन्हैया कुमार को लालू नहीं देखना चाहते, इसलिए पिछली बार भी राजद का सीपीआई के साथ गठबंधन नहीं हो सका था। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी कन्हैया बिहार से चुनाव नहीं लड़ सके थे। इधर राजेश राम के साथ समस्या है कि अखिलेश सिंह कांग्रेस के अध्यक्ष होने के बाद भी लालू के बहुत करीब थे, कुछ तो लोग तो कहते हैं कि लालू के वफादार थे। लेकिन राजेश राम के साथ ऐसा नहीं है।

यानी पिछले एक महीने में कांग्रेस ने जो भी कदम उठाए हैं, जितनी भी रणनीतियां बनाई हैं, वो सब लालू परिवार को नागवार गुजर रही है। लेकिन चुनावी साल में कांग्रेस अपनी ही सहयोगी पार्टी को खखा क्यों करना चाहेगी? राहुल गांधी आखिर क्या सोच रहे हैं? बिहार को लेकर कांग्रेस क्या करना चाह रही है और सबसे अहम सवाल यह है कि क्या इन कारणों से राजद कांग्रेस के साथ गठबंधन तोड़ सकती है?

इन सवालों का हम आज विस्तृत जवाब ढूंढने की कोशिश करेंगे और आपको बताएंगे कि कांग्रेस के इस अग्रेसिवबिहेवियर का बिहार की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा?

राहुल गांधी ने कह दी बड़ी बात 

पहली बात, राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस नए तरह से बिहेव कर रही है। राहुल गांधी कई मौकों पर यह बोलने से नहीं बच रहे कि कांग्रेस के भीतर भी कुछ लोग हैं, जो भाजपा के लिए काम कर रहे हैं। वे साफ तौर पर रहते हैं कि ऐसे लोगों के पार्टी छोड़कर चले जाने से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए राहुल गांधी बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, गुजरात सहित इस देश के तमाम राज्यों में कांग्रेस के संगठन को नए स्तर पर खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। इसी का नतीजा है कि वह कांग्रेस के ऐसे नेताओं से दूरी बढ़ा रहे हैं जो कांग्रेस को छोड़कर किसी और पार्टी के लिए वफादार हैं। फिर चाहे वह राजद ही क्यों ना हो।

दूसरी और अहम बात, दिल्ली चुनाव के परिणाम के बाद कांग्रेस को यह बात समझ में आ गई की बिहार में भी राजद अकेले चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं है। अगर राजद ऐसा करती है, तो इसका सीधा फायदा एनडीए को होगा। इसलिए राजद की मजबूरी है कि वह कांग्रेस के साथ आकर चुनाव लड़े। लेकिन यह मजबूरी कांग्रेस के साथ नहीं है, क्योंकि कांग्रेस बिहार में सिर्फ19 सीटों की पार्टी है, अगर अकेले लड़कर उनकी दो चार पांच सीटें और काम हो जाए, तब भी कांग्रेस की सेहत पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। बल्कि वह पूरे राज्य में अपने संगठन का विस्तार मजबूती से कर पाने में सक्षम होंगे। यानी राहुल गांधी और कांग्रेस नेतृत्व इस बात को जानती है की बिहार में गठबंधन टूटने का अधिक नुकसान राजद को है, कांग्रेस को नहीं। इसलिए वे राजद की मर्जी के खिलाफ जाकर रणनीति बना रहे हैं और उन्हें नाराज करने का रिस्क आसानी से उठा पा रहे हैं।

दिल्ली चुनाव में क्या हुआ

दिल्ली में भी यही हुआ। 70 में से 67 सीटों वाली पार्टी इस बार बहुमत के आंकड़े से बहुत पीछे रह गई क्योंकि वह एनडीए के खिलाफ अकेले चुनावी मैदान में थी। इसलिए मुझे ऐसा लगता नहीं है कि राजद गठबंधन तोड़कर अकेले चुनाव लड़ने की गलती करेगा। क्योंकि इस स्थिति में कांग्रेस के हितों की रक्षा तो होती है, लेकिन राजद के हाथ कुछ नहीं आएगा। इसलिए कन्हैया की एंट्री कृष्णा अल्लावरू की मनमानी और अखिलेश को हटाकर राजेश राम की प्रदेश अध्यक्ष पद पर नियुक्ति जैसे तमाम कदमों को राजद कड़वे मन से ही सही लेकिन स्वीकार तो करेगी ही।

 हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजद और कांग्रेस के बीच पैदा हो रहे खटास का असर निश्चित तौर पर सीट बंटवारे के दौरान देखने को मिलेगा। कांग्रेस कम से कम 70 सीटों की डिमांड कर रही है, लेकिन राजद कांग्रेस को इतनी सीटें देने पर राजी नहीं होगा। आमतौर पर किसी भी चुनाव में सीट बंटवारा उसके पहले के चुनाव में प्रदर्शन के आधार पर होता है। पिछले चुनाव में कांग्रेस 50 सीटों पर लड़ी और सिर्फ 16 सीटें जीत पाई थी, यह प्रदर्शन बहुत ही खराब था। इसलिए इस बार जब कांग्रेस 70 सीटों की मांग करेगी, तो मुश्किल है कि राजद मान जाए।

इस बात को कांग्रेस भी जानती है इसलिए वह अपने संगठन का विस्तार कर रही है। अगर सीट बंटवारे को लेकर राजद और कांग्रेस के बीच बात नहीं बनी तब इस बात की संभावना बनती है कि वे दोनों अलग चुनाव लड़ सकते हैं। हालांकि जैसा मैंने पहले कहा कि यह गलती राजद कभी नहीं करना चाहेगी, हो सकता है की 70 से कुछ कम सीटों पर कांग्रेस को मनाने का प्रयास किया जाए।

भाजपा के साथ खत्म हो रही है जदयू?

राजद यह जानती है, कि कांग्रेस को अधिक सीटें देने का अर्थ है कि राजद की सीटें कम होंगी। यानी अगर इंडिया गठबंधन की सरकार बनती भी है,तो राजद सरकार में होकर भी अपनी मनमानी नहीं कर सकेगी। राजद के नेतृत्व में चल रही सरकार में कांग्रेस का हस्तक्षेप बढ़ेगा और इसके अन्य परिणाम हो सकते हैं। इसी कारण से आमतौर पर गठबंधन की दो या दो से अधिक पर्टियां एक साथ रहने के बावजूद एक दूसरे के खिलाफ रणनीति बना रही होती है। बिहार इस वक्त इसी टशन के दौर से गुजर रहा है

 राजद भाजपा और जदयू के बीच की स्थिति को बहुत करीब से देख रहा है,कि कैसे जदयू जो कभी बिहार की सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी, आज भाजपा के साथ जाकर बेहद कमजोर और लगभग खत्म होने की स्थिति में पहुंच गई है। यह बात बिहार के तमाम क्षेत्रीय दलों को घर कर गई है कि राष्ट्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन करने के अपने रिस्क होते हैं। हालांकि राजद इस वक्त बिहार में बहुत मजबूत है, लेकिन जब जदयू जैसी पार्टी का यह हश्र हो सकता है तो राजद अपने लिए तैयारी करके रखेगी ही।

इन सब के अलावा बिहार में तीसरे मोर्चे के उदय की संभावना बन रही है, जिस कारण कोई भी पार्टी किसी भी तरह का एक्सपेरिमेंट करने से बचना चाहेगी। विशेष कर राजद कभी गठबंधन तोड़कर ऐसी गलती नहीं करना चाहेगी जो भाजपा या एनडीए के किसी और पर्टियों के लिए फायदेमंद साबित हो।

 

 

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