रिपोर्ट – विवेक आर्यन
18 मई 2025. बिहार की राजनीति में एक बड़ा फेर बदल हुआ और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामचंद्र प्रसाद सिंह यानी आरसीपी सिंह ने अपनी पार्टी “आप सबकी आवाज” (आसा) का विलय प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी में कर लिया.
पटना में सुबह 10 बजे आयोजित मिलन समारोह में आरसीपी सिंह ने कहा, “मैं जनसुराज के साथ इसलिए जुड़ा हूं क्योंकि यह पार्टी बिहार के युवाओं और आम लोगों की आवाज बन सकती है। प्रशांत किशोर की सोच और मेरे अनुभव से हम बिहार में बदलाव ला सकते हैं. “प्रशांत किशोर ने इस मौके पर कहा, “आरसीपी सिंह जैसे अनुभवी नेता का हमारे साथ आना जनसुराज को नई ताकत देगा. हम साथ मिलकर बिहार को शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में आगे ले जाएंगे.”
ठीक बात है, अनुभवी नेता हैं, जनसुराज के काम आएंगे ही शायद जनसुराज भी उनके काम आए और दोनों की नैया पार हो जाए। दिलचस्प बात है कि पिछले दो वर्षों मेंजनसुराज उनकी चौथी पार्टी है। वे पहले नीतीश के थे, फिर भाजपा के हुए. लेकिन नीतीश फिर एनडीए में लौट आए, तो उन्हें मजबूरन अपनी पार्टी बनानी पड़ी. और अब वे प्रशांत किशोर के साथ हो चले हैं.
बिहार की इस राजनीतित घटनाक्रम से कुछ जरूरी सवाल उठ खड़े होते हैं। जैसे –आरसीपी सिंह प्रशांत किशोर के लिए कितने कारगर साबित हो सकते हैं.
इसी तरह पीके आरसीपी सिंह के लिए कितने फायदेमंद होंगे. पीके ने आरसीपी सिंह को ऐसी क्या देने की बात कही है कि वे उनके साथ हो चले हैं. दोनों की महत्वकांक्षाएं क्या हैं और इस घटना का कितना असर बाकी पार्टियों पर पड़ेगा. यह भी सवाल है कि क्या आरसीपी सिंह के आ जाने से जनसुराज कुछ सीट कनवर्जन भी कर सकेगा. अगर हां, तो कितनी और कौन-कौन सी? इन्हीं सवालों को जवाब देने के लिए आज हम आपके समझ उपस्थित हुए हैं.
तो चलिए फिर शुरू करते हैं आज का विश्लेषण और बताते हैं आपको कि आरसीपी सिंह के जनसुराज में शामिल होने की प्रभाव क्या और किस हद तक हो सकता है.
आरसीपी सिंह कौन हैं और उनकी राजनीतिक कहानी क्या है
रामचंद्र प्रसाद सिंह1984 बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस अधिकारी थे। उनका जन्म बिहार के नालंदा जिले में हुआ, जो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का गृह जिला भी है. अपनी प्रशासनिक सेवा के दौरान, उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया और अपनी कार्यकुशलता के लिए जाने गए. वे नीतीश कुमार के करीबी सहयोगी के रूप में उनकी सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा चुके हैं.
नीतीश कुमार ने उन्हें अपने केंद्रीय रेल मंत्री के कार्यकाल के दौरान सचिव बनाया था और बाद में 2005 में जब नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने, तो आरसीपी सिंह को उनका प्रधान सचिव नियुक्त किया गया. इस दौरान नीतीश के साथ उनकी नजदीकी बढ़ी और उन्होंने बिहार में कई रेल परियोजनाओं को लागू करने में अहम भूमिका निभाई.
2010 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर उन्होंने राजनीति में कदम रखा और नीतीश कुमार ने उन्हें अपनी पार्टी में शामिल कर लिया और उसी साल उन्हें राज्यसभा भेजा गया. 2016 में भी जेडीयू ने उन्हें राज्यसभा के लिए फिर से नामित किया. पार्टी में उनकी स्थिति मजबूत होती गई और वे नीतीश के सबसे भरोसेमंद सहयोगियों में से एक बन गए। 2020 में नीतीश ने “एक व्यक्ति, एक पद” का नियम लागू किया और जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद छोड़ दिया, जिसके बाद आरसीपी सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया.
आरसीपी सिंह और CM नीतीश में कैसे आई दरारा?
आरसीपी सिंह और नीतीश कुमार के बीच संबंध शुरू से ही मजबूत रहे. दोनों की स्वजातीय पृष्ठभूमि और नालंदा से संबंध ने उनके रिश्ते को और मजबूती दी. नीतीश ने आरसीपी सिंह पर भरोसा जताते हुए उन्हें संगठनात्मक और प्रशासनिक दोनों जिम्मेदारियां दीं. 2010 से 2020 तक, आरसीपी सिंह जेडीयू में लगातार प्रभावशाली रहे.
पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री के रूप में, उन्होंने जेडीयू को मजबूत करने और गठबंधन सहयोगी बीजेपी के साथ समन्वय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 2020 में राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद, कुछ राजनीतिक विश्लेषकों ने उन्हें नीतीश कुमार का संभावित उत्तराधिकारी भी माना.
लेकिन हर कहानी में ट्विस्ट होता है, यहां भी वो ट्विस्ट आया और आरसीपी सिंह और नीतीश कुमार के बीच दरार शुरू हुई. साल 2021 की बात है, जब नरेंद्र मोदी सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार में आरसीपी सिंह को जेडीयूकोटे से केंद्रीय इस्पात मंत्री बनाया गया. जेडीयू के कुछ नेताओं, विशेष रूप से ललन सिंह ने आरोप लगाया कि आरसीपी सिंह ने नीतीश कुमार की सहमति के बिना बीजेपी के साथ सेटिंग करके यह पद हासिल किया. इस घटना ने नीतीश और आरसीपी के बीच अविश्वास की खाई पैदा कर दी.
2022 में जब आरसीपी सिंह का राज्यसभा कार्यकाल समाप्त हुआ, जेडीयू ने उन्हें फिर से नामित नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद जेडीयू ने उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए, जिसमें उनकी और उनके परिवार की संपत्ति में कथित अनियमित वृद्धि का उल्लेख था.
जेडीयू ने दावा किया कि 2013 से 2022 तक आरसीपी सिंह और उनके परिवार ने नालंदा जिले में करीब 40 बीघा जमीन खरीदी। इन आरोपों के बाद जेडीयू ने आरसीपी सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया.
आरसीपी सिंह ने बनाई थी अपनी पार्टी
इसके बाद की कहानी आप जानते हैं, आरसीपी सिंह ने भाजपा का दामन थाम लिया. तब नीतीश राजद और कांग्रेस के साथ थे. लेकिन बाद में फिर वे भाजपा के साथ आए गए और एनडीए की सरकार में सीएम बन रहे. इस तरह आरसीपी सिंह को भाजपा भी छोड़ना पड़ा और 2024 के अंतिम महीनों में उन्होंने अपनी पार्टी बनाई, जिसका नाम था – आप सबकी आवाज, यानी आसा. लेकिन इस आसा से भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी और उन्होंने महज 7-8 महीनों बाद अपनी पार्टी का विलय जनसुराज में कर दिया.
दरअसल आरसीपी सिंह का प्रभाव मुख्य रूप से जेडीयू के भीतर और कुर्मी समुदाय में ही देखा गया है. कुर्मी समुदाय, जो बिहार में एक प्रभावशाली ओबीसी समूह है, नीतीश कुमार और जेडीयू का पारंपरिक वोट आधार रहा है. नीतीश के करीबी होने के कारण, आरसीपी सिंह इस समुदाय में एक मजबूत नेता के रूप में उभरे.
2010 से 2024 तक JDU को मजबूत किया
लेकिन अलग से उनके नेता की रूप में स्थापित तो नहीं हो सके. 2010 से 2021 तक, उन्होंने जेडीयू के संगठन को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और बीजेपी के साथ गठबंधन में समन्वय बनाए रखा. हालांकि, 2022 में जेडीयू से अलग होने के बाद उनका प्रभाव कम हो गया.
मई 2023 में बीजेपी में शामिल होने के बाद, आरसीपी सिंह को उम्मीद थी कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उन्हें टिकट मिलेगा। लेकिन नीतीश कुमार के फिर से बीजेपी के साथ गठबंधन करने के बाद, बीजेपी ने आरसीपी सिंह को दरकिनार कर दिया. इसके बाद 31 अक्टूबर 2024 को उन्होंने अपनी पार्टी “आप सबकी आवाज” (आसा) बनाई, लेकिन यह पार्टी बिहार की राजनीति में कोई प्रभाव नहीं डाल सकी.
कुल मिलाकर देखें, तो नीतीश की छत्रछाया से निकलने के बाद आरसीपी सिंह ने अभी तक ऐसा कोई प्रभाव नहीं दिखा पाए हैं, जो उन्हें कुर्मियों के नेता की रूप में स्थापित कर सके. ऐसे में निश्चित तौर पर आरसीपी सिंह का जनसुराज में शामिल होना उनके लिए एक नई शुरुआत हो सकती है। प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी, जो 2024 में औपचारिक रूप से एक राजनीतिक दल के रूप में शुरू हुई, बिहार में बदलाव का वादा कर रही है। पार्टी का मुख्य फोकस शिक्षा, रोजगार और आर्थिक विकास पर है। आरसीपी सिंह का अनुभव और कुर्मी समुदाय में प्रभाव जनसुराज को मजबूती दे सकता है.
इसे हम तीन तरह से देख सकते हैं
पहला – कुर्मी वोटों पर प्रभाव:कुर्मी समुदाय में आरसीपी सिंह की स्वीकार्यताजनसुराज को उन क्षेत्रों में मजबूत कर सकती है जहां जेडीयू और बीजेपी का पारंपरिक वोट आधार है। बिहार में कुर्मी समुदाय की आबादी लगभग 4-5% है, और यह समुदाय कई विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाता है. कुछ कुर्मी वोट को लाने में आरसीपी सिंह मददगार हो सकते हैं.
दूसरा- प्रशासनिक अनुभव:एक पूर्व आईएएस अधिकारी के रूप में, आरसीपी सिंह का प्रशासनिक अनुभव जनसुराज के लिए लाभकारी हो सकता है. प्रशांत किशोर ने अपनी पार्टी के लिए शिक्षा और रोजगार पर जोर दिया है, और आरसीपी सिंह का अनुभव इन क्षेत्रों में नीतियां बनाने में मदद कर सकता है.
तीसरा – जेडीयू और बीजेपी पर दबाव:आरसीपी सिंह का जेडीयू से अलगाव और बीजेपी में असफलता उन्हें नीतीश कुमार और बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत आवाज बना सकती है. जनसुराज के साथ मिलकर वे उन क्षेत्रों में वोट काट सकते हैं जहां जेडीयू और बीजेपी का प्रभाव है.
अब हम थोड़ा बात करते हैं जनसुराज की और उसके प्रभाव की
नवंबर 2024 में बिहार की चार विधानसभा सीटों (रामगढ़, तरारी, बेलागंज, और इमामगंज) पर हुए उपचुनाव में जनसुराज ने हिस्सा लिया था. हालांकि पार्टी कोई सीट नहीं जीत सकी, लेकिन उसे लगभग 10% वोट मिले, जिसने कई सीटों पर समीकरण प्रभावित किए. यह प्रदर्शन एक नई पार्टी के लिए उल्लेखनीय है.
अब जनसुराज ने दावा किया है कि उनके पास 5 लाख से अधिक सक्रिय सदस्य हैं, जो मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों से हैं। पार्टी ने डिजिटल सदस्यता अभियान शुरू किया है, जिसके जरिए युवाओं को जोड़ा जा रहा है. जनसुराज ने पंचायत स्तर तक संगठन खड़ा करने का दावा किया है. पार्टी ने शिक्षा और रोजगार को केंद्र में रखते हुए “वोट फॉर एजुकेशन, वोट फॉरएम्प्लॉयमेंट” का नारा दिया है.
दूसरी तरफ प्रशांत किशोर एक जाने-माने राजनीतिक रणनीतिकार हैं, जिन्होंने 2014 में बीजेपी और 2015 में नीतीश कुमार की जीत में अहम भूमिका निभाई थी. उनकी रणनीतिक समझ और युवाओं में अपील जनसुराज को एक मजबूत विकल्प बना सकती है.
आरसीपी सिंह के जनसुराज में शामिल होने से पार्टी को अनुभवी नेतृत्व और कुर्मी समुदाय का समर्थन मिल सकता है। इसके अलावा, नीतीश कुमार और बीजेपी के खिलाफ असंतोष को भुनाने में आरसीपी सिंह की भूमिका अहम हो सकती है. हालांकि, यह देखना होगा कि क्या आरसीपी सिंह अपनी पुरानी छवि को फिर से स्थापित कर पाएंगे.
हालांकि मैं साफ-साफ कहूं, तो आरसीपीसिंहजनसुराज को बहुत मजबूती दे सकेंगे, ऐसा लगता नहीं है. क्योंकि जदयू के बाहर उनकी मजबूती उस स्तर की नहीं है. ऊपर से नीतीश के रहते वे कुर्मी वोट नहीं काट सकते हैं. अगर वे ऐसा कर पाए, तो यह चमत्कार से कम नहीं होगा. लेकिन फिर भी प्रशांत किशोर को एक अनुभवी नेता मिला और आरसीपी सिंह को एक नाव, जिसपर सवार हो कर वे इस बार का चुनाव पार करना चाह रहे हैं.
मेरे हिसाब से उनका मकसद साफ है कि उन्हें अपने लिए एक सीट पर जीत करना है. वे विधानसभा पहुंच जाएं, इससे अधिक क्या हो सकता है. अगर पार्टी कुछ सीटें और जीत जाए, तो और मजबूती मिलेगी और आगे के लिए द्वार खुलेंगे। क्या पता गठबंधन में कुछ बात ही बन जाए. लेकिन ऐसा कहना गलत होगा कि दोनों के मिल जाने से 1 और 1 11 हो गए हैं.
खैर, हम आगे देखते हैं कि यह गठजोड़ किस तरफ जाता है. और पीके आरसीपी सिंह का इस्तेमाल किस रूप में करते हैं. उम्मीद है कि आने वाले चुनाव में दोनों की जोड़ा प्रभावशाली नजर आए.