झारखंड का बजट बहुत धूम-धड़ाके के साथ पेश हो गया. स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग को 15,198.35 करोड़ रुपये का आवंटन मिला है. 5 नई यूनिवर्सिटी, 5 नये लॉ कॉलेज और 3 नए इंजीनियरिंग कॉलेज खोलने की बात सरकार ने कही है. स्कूलों में 1050 गणित और साइंस लैब बनाने का वादा है. मिडिल स्कूलों को हाईस्कूल में और हाईस्कूल को प्लस-2 स्कूल में अपग्रेड करने का दावा किया है हेमंत सोरेन सरकार ने. कहा है कि इससे सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाके के 2.5 लाख बच्चों के बेहतर शिक्षा मिलेगी. बेहतर शिक्षा? विपक्ष ने पहले ही शिक्षा बजट को नाकाफी बता दिया है. प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी कहते हैं कि मंईयां को खुश करने के चक्कर में हेमंत सोरेन सरकार ने भइया लोगों के साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी कर दी है. सरयू राय का मानना है कि सरकार का बजट विरोधाभासी है. 1,45,400 करोड़ रुपये का बजट देखने में तो विशाल लगता है लेकिन सरकार ये स्पष्ट नहीं बता पा रही है कि पैसे कब, कहां और कैसे खर्च होंगे. चलिए खर्च हो भी गए तो आउटकम क्या आएगा?
धनबाद विधायक राज्य सिन्हा ने पूछा था ये सवाल
शिक्षा मंत्री हैं रामदास सोरेन. मंगलवार को धनबाद से भारतीय जनता पार्टी के विधायक राज सिन्हा ने झारखंड में स्कूली शिक्षा की हालत पर चंद सवाल कर लिए. साथ ही दावा किया कि 8000 से ज्यादा प्राइमरी स्कूल बिना किसी टीचर के चल रहे हैं. शिक्षा मंत्री ने जवाब देने में कबूल लिया कि हालत उतने खराब नहीं जितना आंकड़ा आप गिना रहे हैं लेकिन, हां प्राइमरी शिक्षा बदहाल तो है. राज सिन्हा ने क्या पूछा. शिक्षा मंत्री ने क्या जवाब दिया. इस सवाल-जवाब में ही झारखंड के प्राइमरी एजुकेशन की बहहाली की मार्मिक कहानी छिपी है. हम कोई आरोप नहीं लगा रहे न ही हमारा इरादा जख्म कुरेदने का है लेकिन, बात खुद शिक्षा मंत्री ने ही बताई है. और जब बात निकली है तो सब जानते हैं कि दूर तलक जाएगी. बात शिक्षा की है. प्रदेश की 78 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है. बड़ा हिस्सा एससी, एसटी, पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यकों का है. इनके बच्चे अपनी शिक्षा-दीक्षा के लिए सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं. अब देखना यही है कि पिछले 24 वर्षों में झारखंड, झारखंडी और झारखंडियत की बात करने वाली सभी सरकारें, बेसिक ह्यूमन नीड में शामिल शिक्षा के प्रति कितनी गंभीर रही है.
हां एक और बात! यहां सीएम स्कूल ऑफ एक्सीलेंस, सीबीएसई वाली अंग्रेजी मीडियम शिक्षा और डिजिटल बोर्ड वाले नारों के झांसे वाली बात नहीं होगी बल्कि हम हकीकत बयां करेंगे. खांटी हकीकत. हो सकता है कि चुभे लेकिन उससे कम ही चुभेगा जो पीढ़ियों से अशिक्षा का दंश झेलती आ रही पीढ़ियां झेल रही है.
झारखंड के मौजूदा बजट में सिर्फ हवा-हवाई बातें!
एक छोटी सी कहानी सुनिएगा? एक गांव में एक दिन बारात आई. घरातियों ने बरातियों के स्वागत में बनारसी पान के साथ पूरे छप्पन भोग का इंतजाम किया. जब भूख से बिलबिलाए थके-मांदे बाराती पंगत में बैठे तो पता चला, खाना पकाने को चूल्हा-माचिस और परोसने के लिए पत्तल हैइये नहीं. यही हाल झारखंड की सरकारों और उनके बजट का रहा है. बैनर, पोस्टर, नारा, भाषण, फोटो, फकैती सब है. जो नहीं है वो है सुविधा. धरातल पर काम. ठोस नीति और नेक नीयत. चलिए शुरू करते हैं.
झारखंड की प्राइमरी शिक्षा पर मंत्री रामदास सोरेन का खुलासा
तो मंगलवार को बीजेपी विधायक राज सिन्हा ने प्राइमरी स्कूलों में ड्रॉपआउट और टीचर की उपलब्धता से संबंधित सवाल पूछा था. शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन ने बताया कि प्रदेश में 103, गौर कीजिएगा 103 स्कूल ऐसे हैं जहां एक भी बच्चे ने दाखिला नहीं लिया. या कभी दाखिला लिया था तो अब स्कूल नहीं आते. इन 103 स्कूलों में 17 टीचर हैं लेकिन बच्चे शून्य. रूकिए. अभी माथा नहीं पीटिये. अभी तो मामला शुरू हुआ है. शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन ने आगे बताया कि यू-डायस से प्राप्त आंकड़ों से ऐसा पता चला है कि पूरे राज्य में 7,930 स्कूल वैसे हैं जहां केवल 1 टीचर काम करते हैं. इन स्कूलों में 3 लाख 81 हजार 455 बच्चे पढ़ने आते हैं. सोचिए जरा कि क्या पढ़ते होंगे. एक तो स्कूलों में 1-1 टीचर हैं. वे भी बिचारे कभी गुरु गोष्ठि, कभी मिड डे मील, कभी मतदाता पुनरीक्षण तो कभी बच्चों का खाता खुलवाने में व्यस्त रहते हैं. झारखंड में टीचर्स को वैसे ही सरकारों ने मल्टीपर्पस बना रखा है. शिक्षा मंत्री बोलते-बोलते यह भी कबूल गये कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम होती जा रही है. सवाल है कि बच्चे कहां गये. क्या ये प्राइमरी स्कूल से कम हो गये सभी बच्चों ने पढ़ाई छोड़ दी? नहीं!!!! दरअसल, ये इनमें से अधिकांश बच्चों ने निजी स्कूलों का रुख कर लिया है. वही इंग्लिश मीडियम वाली पढ़ाई करने, जो देने के लिए सरकार ने सीएम स्कूल ऑफ एक्सीलेंस खोला है. वही सीएम स्कूल ऑफ एक्ंसीलेंस जिसे बने डेढ़ साल हो गये लेकिन टीचर एक भी बहाल नहीं हुआ. चुभेगी लेकिन सच कहूं तो इन सीएम स्कूल ऑफ एक्सीलेंस में एक्सीलेंटली चमकदार पेंटिंग की गई है बस.
झारखंड के स्कूलों को सवा लाख से ज्यादा टीचर चाहिए
शिक्षा मंत्रालय का आंकड़ा बताता है कि झारखंड के प्राइमरी स्कूलों को 74,357 टीचर्स चाहिए. यदि इसमें माध्यमिक और हाईस्कूलों को भी मिला दें तो स्वीकृत पदों का आंकड़ा सवा लाख के पार जाता है. शिक्षा मंत्री ने बताया कि शिक्षकों की नियुक्ति के लिए वर्ष 2016 में प्रकाशित विज्ञापन और सुप्रीम कोर्ट एवं हाईकोर्ट से पारित आदेश के बाद 17,786 स्वीकृत पदों के विरुद्ध 13,923 शिक्षकों की भर्ती की गयी. हाईस्कूलों में 2,612 शिक्षकों की बहाली की गई है.
सहायक अध्यापक के 26001 पद पर लंबित है बहाली
दिवंगत पूर्व शिक्षा मंत्री जगरनाथ महतो ने अपने कार्यकाल में कहा था कि किश्तों में 1 लाख टीचर्स की बहाली की जायेगी. उनके ही कार्यकाल में 26001 पद पर प्राइमरी टीचर की बहाली की प्रक्रिया शुरू की गई थी. कहा गया कि 13 हजार शिक्षकों को पूरी प्रक्रिया पार करनी होगी वहीं बाकी 13 हजार टीचर्स की बहाली पहले से कार्यरत पारा टीचर्स में से की जायेगी. ताजा सूचना ये है कि पारा टीचर्स को कोई छूट नहीं मिलेगी. इन शिक्षकों की बहाली सीटैट बनाम जेटेट अभ्यर्थियों की लड़ाई में भी फंसी. सीटेट वालों का तर्क था कि 2016 के बाद से जेटेट की परीक्षा नहीं ली गई है. इसलिए उनको भी मौका दिया जाये. सरकार ने मौका दिया भी. वहीं जेटेट वालों का तर्क था कि विज्ञापन जारी करते समय सीटेट को मान्यता नहीं थी इसलिए उनको मौका देना असंवैधानिक था. सीटेट वाले परीक्षा में शामिल हो चुके थे और अब सुप्रीम कोर्ट ने सीटेट को मौका देने की बात को गलत कह दिया है. कुल मिलाकर करीब 3 साल से सहायक अध्यापकों की नियुक्ति का मामला लंबित हैं. राज्य में बाकी सारे काम हो गये, चुनाव हो गया. मईया सम्मान की राशि बंट रही है. मंत्रियों का बंगला तैयार है. विधायकों का आवास बन रहा है. बस शिक्षा में ही अड़चने हैं.
झारखंड में शिक्षा का अधिकार अधिनियम फलीभूत नहीं
गौरतलब है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के मुताबिक 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है. 4 अगस्त 2009 को यह अधिनियम लोकसभा में पारित किया गया था. 1 अप्रैल 2010 को इसे पूरे देशभर में लाग किया गया. झारखंड की कुल आबादी का 78 फीसदी हिस्सा ग्रामीण इलाकों में निवास करता है. इस आबादी में शामिल परिवारों के गरीब बच्चे प्राइमरी शिक्षा के लिए सरकारी स्कूलों पर निर्भर हैं. 64 फीसदी स्कूलों में खेल का मैदान नहीं है. 37 फीसदी स्कूलों में लाइब्रेरी में किताब नहीं है. असर की रिपोर्ट बताती है कि झारखंड में शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के बेसिक मानकों का भी पालन नहीं किया जा रहा. स्कूलों में बाकी इंफ्रास्ट्रक्चर तो छोड़िए, टीचर तक नहीं हैं. नतीजा. यहां मैट्रिक बोर्ड परीक्षा का पेपर भी लीक हो जाता है.
असर की रिपोर्ट बताती है कि झारखंड के प्राइमरी स्कूलों में बच्चों को सामान्य हिंदी और अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तक पढ़ना नहीं आता. 8वीं के बच्चे तीसरी क्लास का मैथ सॉल्व नहीं कर पाते. कोविड के दौरान ऑनलाइन एजुकेशन कितना मिला, झारखंड के संदर्भ में सबलोग जानते हैं.
एक और हैरानी वाली बात जानते जाइये. हिंदी दैनिक दैनिक भास्कर की ताजा रिपोर्ट के मताबिक रांची यूनिवर्सिटी के 4 कॉलेजों में नामांकित 3 हजार से ज्यादा छात्र-छात्राओं को पढ़ाने के लिए एक भी टीचर नहीं है. इनमें से अधिकांश छात्रायें हैं. वे कॉलेज कौन से हैं, विवरण देख लीजिए.
रांची यूनिवर्सिटी के चार कॉलेजों में एक भी शिक्षक नहीं
मॉडल डिग्री कॉलेज बानाो सिमडेगा में हिंदी, इतिहास, भूगोल, अंग्रेजी और कॉमर्स विषय से स्नातक की पढ़ाई होती है लेकिन यहां नामांकित 900 विद्यार्थियों में एक भी शिक्षक नहीं है. महिला कॉलेज लोहरदगा में पॉलिटिकल साइंस, हिंदी, अंग्रेजी, कुडुख, साइकोलॉजी, नागपुरी विषय से ऑनर्स की पढ़ाई होती है लेकिन 600 छात्राओं को पढ़ाने के लिए एक भी शिक्षक नहीं है. महिला कॉलेज सिमडेगा में 300 विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए एक भी शिक्षक नहीं है. मॉडल डिग्री कॉलेज घाघरा में पॉलिटिकल साइंस, हिंदी, अंग्रेजी, इकोनॉमिक्स और टीआरएल विषय में नामांकित 700 स्टूटेंड को पढ़ाने के लिए एक भी शिक्षक नहीं है. सरायकेला जिले के खरसावां डिग्री कॉलेज में 70 स्टूटेंड नामांकित हैं लेकिन कोई पढ़ाने वाला नहीं है.
इन जिलों में कॉलेज इसलिए खुला था क्योंकि यहां सुदूरवर्ती ग्रामीण इलाको में रहने वाली गरीब आदिवासी बच्चियां रांची, जमशेदपुर या धनबाद आकर नहीं पढ़ सकतीं. सरकारों ने बिल्डिंग खड़ा कर अपनी पीठ थपथपा ली. अब जब यहां टीचर्स ही नहीं हैं तो बच्चियां क्या पढ़ेंगी. कैसे शिक्षा हासिल करेंगी. कैसे उनका ग्रेजुएशन पूरा होगा. क्या वाकई सरकार कभी सोचती भी है. सच जानते-जानते आप खीझ जायेंगे. परेशान हो जाएंगे. सवाल आयेगा मन में कि आखिर क्यों? क्यों सरकारें जनता को अनपढ़ ही रखना चाहती है?