TFP/BIHAR : बिहार लोक सेवा आयोग की परीक्षा में कथित तौर पर गड़बड़ी के बाद हो रहे प्रदर्शन से कई राजनीतिक सवाल उभरते हैं।
पहला सवाल– राज्य की सबसे बड़ी पार्टी राजद इतने बड़े मुद्दे को अपना क्यों नहीं रही है? उनका कोई नेता विशेषकर तेजस्वी यादव इस आंदोलन के समर्थन में प्रत्यक्ष रूप से क्यों नहीं आ रहे हैं? क्योंकि इसके पहले वे इससे छोटे प्रदर्शन में भी शामिल होते रहे हैं।
दूसरा सवाल –प्रशांत किशोर, जो अब तक पदयात्रा के माध्यम से बिहर में राजनीतिक जमीन तलाश रहे थे, वे अचानक छात्रों के हितों के लिए अनशन क्यों कर रहे हैं? उनका क्या उद्देश्य है और वे अपने उद्देश्यों की कितनी पूर्ति इससे कर सकेंगे?
तीसरा सवाल –इस प्रदर्शन से नीतीश कुमार को कितना नुकसान पहुंचेगा और आने वाले चुनाव पर इस पूरे मसले का क्या असर पड़ेगा?
आखिर क्या है इस प्रदर्शन के राजनीतिक मायने और यहां से किस करवट ले सकती है बिहार की सियासत।
13 दिसंबर को बिहार लोक सेवा आयोग की परीक्षा हुई, कुल 2031 पदों पर वैकेंसी थी, जिसके लिए लगभग साढ़े तीन लाख अभ्यर्थियों ने परीक्षा दी। पटना स्थित बापू परीक्षा परिसर नामक सेंटर में कथित तौर पर प्रश्नपत्र बांटने में देरी हुई, जिसे आयोग ने भी स्वीकार किया और ऐलान किया कि इन सेंटर के सभी अभ्यर्थियों के लिए दोबारा परीक्षी ली जाएगी। 4 जनवरी को यह परीक्षा हुई भी। लेकिन इस बीच बाकी अभ्यर्थी पूरी परीक्षा को ही रद्द करने की मांग को लेकर प्रदर्शन पर उतर आए, जिनपर लाठियां चार्ज हुईं, वाटर कैननसे पानी बरसाए गए, लगभग एक सप्ताह से ये पूरा मामला राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा का विषय बना रहा और सभी अपनी-अपनी तरह से इसका विश्लेषण करते रहे।
हम प्रदर्शन के राजनीतिक पहलू पर बात करने जा रहे हैं। अभ्यर्थियों का प्रदर्शन कितना सही है या कितना गलत फिलहाल इसपर हम कोई टिप्पणी नहीं करने जा रहे हैं। इस प्रदर्शन में राजनीतिक तड़का तब लगा, जब एक तरफ से प्रशांत किशोर और दूसरी तरफ से पप्पू यादव प्रदर्शन के समर्थन में आए, और एक दूसरे पर आरोप लगाने लगे कि सामने वाला नेता फर्जी है और दिखावा कर रहा है। साफ दिख रहा था कि लाखों के संख्या में छात्रों के प्रदर्शन से राजनीतिक माइलेज लेने की होड़ दोनों के बीच है। हम और आप जानते हैं कि इस तरह के मुद्दे राजनेताओं के लिए माकूल होते हैं, जहां से वे अपनी राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति कर सके।
हम शुरुआत अपने पहले सवाल से करते हैं कि आखिर बिहार में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी राजद ने खुद को इस आंदोलन से अलग क्यों रखा और खास कर तेजस्वी यादव इस छात्रों के साथ क्यों नहीं हैं। वे सिर्फ एक बार छात्रों के बीच आए हैं और फिर गायब हो गए। इसका जवाब उन कयासों में छिपा है, जिसमें नीतीश और तेजस्वी के साथ आने की बातें कहीं जा रही थी। आप भी जानते हैं कि कुछ दिनों से बिहार में यह चर्चा सबसे गर्म थी कि क्या नीतीश राजद के साथ आ सकते हैं। हाँ या ना का सवाल छोड़ दीजिए, लेकिन इतना तो है कि राजद चाहती है कि नीतीश आ जाएं। तभी तो लालू यादव ने कहा कि दरवाजे खुले हैं, मीसा भारती ने कहा कि लालू और नीतीश दोस्त हैं। फैसला तो नीतीश को लेना है, राजद तो चाह ही रही है कि वे आ जाएं। ऐसे में अगर राजद नीतीश के स्वागत में आरती की थाली सजा की बैठी हो, तो फिर उनके खिलाफ प्रदर्शन में कैसे जा सकती है? साफ है कि उम्मीद की किरण राजद को वर्तमान से उजाले से दूर रख रही है। बयानों में तेजस्वी जरूर छात्रों के लिए कुछ न कुछ कह रहे हैं, एकाध बार मिल भी लेंगे, लेकिन ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे, जिससे नीतीश के वापस आने की संभावनाओं पर पूर्ण विराम लग जाए।
दूसरा सवाल- प्रशांत किशोर क्यों इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे हैं। क्योंकि इस आंदोलन को प्रशांत किशोर की जरूरत है और प्रशांत किशोर को इस आंदोलन की। कैसे – बताते हैं।
प्रशांत किशोर के आने से पहले ऐसा लग रहा था कि आंदोलन अब खत्म हो जाएगा। पुलिस और प्रशासन ने लगभग इसे खत्म करने की तैयारी कर ली थी, लेकिन पीके के आने से दो चीजें हुईं हैं। पहली – आंदोलन को नेता मिल गया है और दूसरी देश भर के मीडिया कैमरे पटना की तरफ घूम गए हैं।
दूसरी तरफ – प्रशांत किशोर की पदयात्रा रुकी हुई है, इसका कारण ठंड हो या कुछ और। इस दौरान जितना वे घूमे, जितनी मेहनत उन्होंने की, बिहार के उपचुनाव में उन्हें उस तरह की कोई फायदा उन्हें मिल नहीं सका। वे समझ गए हैं कि सिर्फ पदयात्रा उनके उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर सकती। उन्हें जरूरत है एक ऐसे आंदोलन की, जहां से वे अपनी पार्टी को लोगों की जेहन तक पहुंचा सके और कम से कम एक हालिया उपलब्धि हासिल कर सकें। क्योंकि अभी तक उनकी उपलब्धियां स्ट्रेटजिस्ट के तौर पर रही हैं।
इस लिहाज से मैंने कहा कि जितनी जरूरत आंदोलन को पीके की थी, उतनी ही जरूरत पीके को भी इस आंदोलन की थी। और अगर मेरा आकलन सही है, तो प्रशांत किशोर आंदोलन को बड़ा करना चाहेंगे। वे निश्चित तौर पर इसमें बिहार के कुछ और मुद्दों को जोड़ेंगे और चाहेंगे कि सिर्फ परीक्षा तक सीमित नहीं रहकर इस आंदोलन के प्रभाव को व्यापक बनाया जा सके। 2025 के चुनाव में प्रशांत किशोर की स्थिति क्या होगी, यह काफी हद तक इस आंदोलन की सफलता पर निर्भर करता है।
आते हैं अपना तीसरे सवाल पर, कि क्या नीतीश कुमार को इस आंदोलन से नुकसान होगा। अगर हां तो कितना और नहीं तो क्यों नहीं? जवाब है कि कल तक तो कई खास नुकसान होता नहीं दिख रहा था, लेकिन अब लगता है कि हो सकता है। देखिए, यह ठीक है कि बिहार में चुनाव जातीय आधार पर लड़े जाते हैं और अंत में जातीय गोलबंदी ही सबकुछ तय करती है।
लेकिन जिस तरफ प्रशांत किशोर बढ़ रहे हैं, या बढ़ने की मंशा उनकी है और जितना उनको मैं समझता हूं। वे इस पूरे नैरेटिव को कहीं और शिफ्ट करने की क्षमता रखते हैं। अगर यह आंदोलन कुछ और दिन चला, तो आप देखिएगा कि यह सिर्फ बीपीएससी का मुद्दा नहीं रह जाएगा। इसमें कई और चीजें जुड़ेंगी, जिससे बिहार के आम लोगों का भी वास्ता होगा। और फिर इसी हुजुम का फायदा उठाकर पीके अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर लेंगे, ऐसा अभी तक तो जरूर लग रहा है।
पीके, जदयू, राजद और बीजेपी के समीकरणों पर हम फिर कभी और विस्तृत चर्चा करेंगे। लेकिन आज यह बात कहा जाना मुनासिब है कि बिहार विधानसभा चुनाव के लिए मैदान तैयार होने लगा है। बिहार में हो रही हर गतिविधि को अब चुनाव से जोड़कर देखे जाने की जरूरत है। इस आंदोलन पर आगे की राजनीति काफी हद तक निर्भर करती है।