मां की गोद में बेटे का सिर है. मां के हाथ में आंचल है. मां बेटे के चेहरे को आंचल से पोछंती है. पुचकारती है और दुलारती है. वो बेटे को अपनी आंचल में एक बार फिर समेट लेना चाहती है लेकिन इस कोशिश में असफल रहती है क्योंकि, बेटा अब बहुत दूर जा चुका है.
इतनी दूर कि अब चाहकर भी वापस नहीं आयेगा.
मां हल्के से फुसफुसा के कहती है कि सुन न! जरा आंखें तो खोले. मुझे देख तो सही लेकिन. वो पलकें आखिर कैसे खुलेगी जो हमेशा के लिए मूंद ली गई है.
मृत बेटे के सिर को गोद में लेकर उसके चेहरे को अपने आंचल से पोंछती मां विलाप, चीत्कार और कंद्रन करना तो छोड़िए, सिसकियां भी नहीं भर रही.
दरअसल, सरकारी जुल्म का वज्रपात इतना भीषण था कि इस मां के आंसू भी सुखा गया. अस्पताल के बिस्तर पर बेजान पड़ा ये लड़का प्रेम है. प्रेम महतो. नौकरी मांग रहा था, मौत मिली है. दर्दनाक मौत.
सरकारी शह पर कॉर्पोरेट जुल्म में सनी लाठियां प्रेम के सिर पर किसी हथौड़े के मानिंद लगी है.
प्रेम घर चलाने को नौकरी चाहता था, रसूखदारों ने न्यू इंडिया में ऐसी हिमाकत की सजा-ए-मौत बख्शी है. सत्ताधीशों ने अच्छे दिन के अपने संकल्प की पहली बलि चढ़ाई है. प्रेम महतो पहला शिकार बना लेकिन, यकीन मानिए कि आखिरी नहीं है.
राजनीति, सत्ता, कॉर्पोरेट और मुनाफे की इस दौड़ में कई और भी लोग रौंदे जाएंगे. आप तो भइया, रामनवमी उत्सव की तैयारी कीजिए. मुहर्रम मनाइये. सरहुल में नाचिए और भूल जाइये कि क्या बीता है!!!
बोकारो स्टील प्लांट के पास एडीएम बिल्डिंग के सामने वाली सड़क पर अभी भी खून के निशान ताजा हैं. खून जो प्रेम महतो के सिर से झरे हैं.
क्यों? क्योंकि, प्रेम ने न्यू इंडिया में नौकरी मांगने की गुस्ताखी की थी.
देश-विदेश के मीडिया चैनल्स से लेकर करोड़ों कॉन्टैंट कंज्यूमर युवाओं के मोबाइल फोन तक फैले अच्छे दिन के वादों के चकाचौंध को हक और अधिकार के नारों से बदरंग करने की हिमाकत कर रहा था. कहां तो उसे स्मार्टफोन में मिनट दर मिनट हिंदू-मुस्लिम की बहस को ट्वीट-रिट्वीट करके राष्ट्र निर्माण के अपूर्व अभियान में बाकी लड़कों की तरह हिस्सा लेना था और कहां वो पगला घर-परिवार चलाने के लिए अपनी योग्यता पर नौकरी मांगने में लगा था.
विचार और धारा के विपरित चलने की सजा तो मिलनी ही थी, सो मिली है.
प्रेम और उनके पुरखों को कंपनी ने इस गलती की सजा दी
जानते हैं प्रेम की गलती क्या थी. या यूं सवाल करना ज्यादा मुनासिब होगा कि प्रेम महतो की गलतियां क्या थी?
दरअसल, प्रेम महतो के पुरखों ने आजादी के महज 3 साल बाद ही राष्ट्र निर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए प्लांट की स्थापना के निहितार्थ अपनी जमीनें दी थीं. जमीन जो सोना उगलती थी. वो आलू वाला सोना नहीं बल्कि फसल. गेहूं, धान, दलहन, तिलहन और सब्जियां. प्रेम महतो के पुरखों ने तब राष्ट्र निर्माण में अपनी भागीदारी की कीमत अपना पेट काटकर चुकाई.
बदले में केवल इतना वादा लिया था कि खेती छिन गई है तो आजीविका के लिए आपके प्लांट में एक अदद नौकरी दीजिएगा.
यूं नहीं. वंशज इसके योग्य बनेंगे. प्रेम महतो ने अप्रेंटिसशिप की ट्रेनिंग ली. स्किल सीखा योग्य बना और नौकरी मांग रहा था. कंपनी ने कहा इंतजार करो. लेकिन कितना?
10 साल बीत गये थे इस इंतजार को और जब सब्र का बांध टूटा तो कंपनी प्लांट के बाहर टाट बिछाकर शांतिपूर्ण तरीके से हक मांगने बैठ गया. बस यही बात कंपनी के अधिकारियों को नागवार गुजरी. एसी कमरे में ऊंची पुश्त वाली रिवॉल्विंग चेयर पर सुकून की नींद में खलल पड़ गयी शायद. तो दे दिया हुक्म कि जाओ लट्ठ बजाओ.
और सीआईएसएफ के जवानों ने अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर मालिक के हुक्म की तामील कर डाली. लाठियां बरसाईं पूरे जोर से.
समझ नहीं आता कि इन निहत्थे लड़कों से ऐसा क्या खतरा था कि जान लेने तक की नौबत आन पड़ी.
कभी प्रेम के पुरखों ने राष्ट्र निर्माण की कीमत चुकाई थी और आज कंपनी ने प्रेम के पार्थिव शरीर की कीमत लगाई है.
पूरे 20 लाख रुपये.
कहा है, उसके घर के एक सदस्य को नौकरी भी देगी. इधर, बेटे का शव गोद में लेकर अस्पताल के बिस्तर पर बैठीं मां का चेहरा भले ही भावशून्य नजर आता हो लेकिन इसमें हजारों सवाल हैं कि, क्या नौकरी मांगना इतना बड़ा गुनाह था कि मुझसे मेरे कलेजे का टुकड़ा छीन लिया. क्या अपना हक मांगना इतनी बड़ी गलती थी कि मेरे बच्चे के सिर पर लाठियां बरसा दी. क्या अपनी योग्यता की कीमत मांगना ऐसी हिमाकत थी कि जिंदगी ही छीन लोगे. किसकी शह पर बरसी लाठियां.
कहां से आई एक निहत्थे आम लड़के को मार डालने की हिम्मत. किसके आदेश पर सीआईएसएफ जवानों ने भांजी लाठियां.
और, ये जवान जिंदा हैं या जॉम्बी हैं. आदेश मिला और पिल पड़े. अपना विवेक चोर बाजार में फुटकर के भाव बेच तो नहीं आये.
भारत में सबसे सस्ती आम इंसान की जिंदगी है
प्रेम की मां के तमाम सवालों का जवाब एक और सवाल में ही छिपा है.
दरअसल, इस देश में बहुत कुछ महंगा है लेकिन एक चीज हद से ज्यादा सस्ती है. जानते हैं क्या? एक आम इंसान की जिंदगी. सत्ताधीशों के शह में ये कॉर्पोरेट घराने दरअसल, सोचते हैं कि अकूत पैसा है तो क्या नहीं खरीद सकते. आम जिंदगी की कीमत ही क्या है?
लेकिन, उन्हें प्रेम की मां की आंखों में आंख डालकर पूछना चाहिए, पता चलेगा कि प्रेम कितना अनमोल था. कंपनी ने प्रेम की जान की कीमत 20 लाख रुपये लगाई है लेकिन उसकी मां अब कभी बेटे का चेहरा नहीं देख पाएगी, ये हक छीन जाने की कीमत क्या होगी. मां के हिस्से प्रेम का अंतहीन इंतजार आया है, उस इंतजार की कीमत क्या होगी. मां के सूने आंचल की कीमत क्या होगी. सूख चुके आंसुओं की कीमत क्या होगी. प्रेम की गैरमौजूदगी में दीवारें काटने को दौड़ेगी, मां की जिंदगी में आये उस खालीपन की कीमत क्या होगी. मां अब कभी यूं प्रेम का चेहरा नहीं पोंछ पाएगी, हथेलियों को मिली इस सजा की कीमत क्या होगी. कंपनी कैसे ये कीमत अदा करेगी.
क्यों न कहें कि बोकारो में बीएसएल, गोड्डा में अडाणी, जादूगोड़ा में यूसीआईएल और इन जैसी अन्य मुनाफा सेंट्रिक कंपनियां दरअसल न्यू इंडिया की नई ईस्ट इंडिया कंपनी है जो वाजिब हक और अधिकार के लिए होने वाले प्रत्येक आंदोलन के ऊपर कभी लाठियों तो कभी गोलियों के दम पर एक और जालियांवाला बाग लिख देना चाहती है.
आम लोगों की जमीन, संसाधन, श्रम और हवा तक का इस्तेमाल करके अकूत दौलत से अपनी तिजोरियां भर रही इन कंपनियों को निहत्थे इंसानों से इतना डर क्यों लगता है. कौन सा साम्राज्य ढह जाने का खतरा रहता है. कौन सी विरासत लुट जाने का भय है. ऊंची चारदीवारी के भीतर, ग्लास वॉल के भीतर एयर कंडीशन कमरों में बैठे इन रसूखदारों की धड़कन, हक और अधिकार के लिए उठने वाली आवाज से यूं तेज क्यों हो जाती है. जवाब शायद किसी के पास नहीं है. आपके पास हो यदि तो बताइयेगा.
फिलहाल, लाठीचार्ज के बाद उपजे बवाल और शासन प्रशासन के दबाव में कंपनी ने मृतक प्रेम महतो के घरवालों को 20 लाख रुपये का मुआवजा और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने पर हामी भर दी है.
वादा किया है कि प्रशिक्षण प्राप्त कर चुके लड़कों को 21 दिन में पद सृजित करके 3 महीने के भीतर नौकरी देंगे.
लाठीचार्ज में जो लोग घायल हुए हैं, उनका इलाज मुफ्त होगा. साथ ही प्रत्येक घायल व्यक्ति को 10,000 रुपये का मुआवजा मिलेगा.
बस इतनी सी तो बात थी.
पुरखों ने जमीन दी है. लड़कों ने ट्रेनिंग ली है और बदले में नौकरी चाहते हैं. स्थायी नहीं तो अस्थायी ही सही लेकिन आंदोलन से कंपनी का ईगो हर्ट हो गया. छीन लिया एक मां से उसका बेटा. एक बहन से उसका भाई. दोस्तों से उसका जिगरी.
मुआवजा तो दिया लेकिन आंसुओं की क्या कीमत लगेगी.