झारखंड

झारखंड में खटिया पर दम तोड़ती स्वास्थ्य व्यवस्था, सड़क और पुल-पुलिया का पैसा कहां गया?

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झारखंड में स्वास्थ्य व्यवस्था खटिया पर दम तोड़ रही है. नई तस्वीर सिमडेगा की है जहां बुजुर्ग मरीज को घरवाले खटिया में टांगकर 8 किमी दूर मुख्य सड़क तक पहुंचे जहां एंबुलेंस मिला. 4 कंधों पर टंगी खटिया.

खटिया में लेटा कराहता हुआ मरीज. इसे कच्ची-पथरीली पगडंडी पर लंगड़ाते हुए ढोकर ले जाते लोग.

झारखंड में ये तस्वीर नई नहीं है. इस प्रदेश में हर सप्ताह खटिया पर मरीजों को ढोने की एक तस्वीर आ ही जाती है. बस किरदार, नाम, जगह और जिला बदल जाता है.

अखबारों में तस्वीरें छपती है. टेलीविजन और पोर्टल रिपोर्ट करते हैं. सोशल मीडिया में तस्वीर के साथ सरकार की लानत मलानत की जाती है लेकिन कुछ नहीं बदला. नतीजा वही ढाक के तीन पात.

दरअसल, बीमारियों का इलाज किया जा सकता है लेकिन हुक्मरानों की बेशर्मी का क्या उपचार किया जा सकता है.

लीजिए, खटिया पर झारखंड के हेल्थ सिस्टम को दर्शाता हुआ एक और वीडियो आया है. ये नई तस्वीर सिमडेगा की है.

कहानी वही है. पक्की कंक्रीट की सड़क तो छोड़िए, ढंग का कच्चा रास्ता तक नहीं है.

सिमडेगा के ठेठईटांगर से आई शर्मनाक तस्वीर

यह तस्वीर झारखंड के सिमडेगा की है. बांस के सहारे खटिया टंगी है. उसमें कंबल में लिपटा एक बुजुर्ग लेटा है. दर्द में है. 4 लोग खटिया को टांगे पथरीले रास्ते पर तेजी से चलने की असफल कोशिश कर रहे हैं.

इस कोशिश में कई बार इनके कदम लड़खड़ाते हैं. खटिया के पीछे-पीछे रोती-बिलखती कुछ महिलायें हैं.

यहां एक जंग चल रही है. खटिया ढो रहे लोगों और उसमें लेटे बीमार बुजुर्ग की सांसों के बीच. सांसों और कदमों के बीच ये अनचाही जंग इसलिए है क्योंकि सरकार सड़क नहीं बनवा पाई है. गौर कीजिएगा. सरकार सड़क नहीं बनवा पाई.

दावा और वादा तो अभूतपूर्व विकास को प्रदेश के अंतिम पायदान तक खड़े व्यक्ति तक पहुंचाने की है लेकिन सरकार झारखंड गठन के 24 साल बाद भी ग्रामीण इलाकों में एक अदद पक्की सड़क नहीं बनवा पायी है.

कुरुमडेगी गांव में बिगड़ गई थी बुजुर्ग की तबीयत

खटिया पर मरीज को ढोते यह तस्वीर झारखंड के सिमडेगा जिला के ठेठईटांगर प्रखंड अंतर्गत ताराबेगा पंचायत के कुरुमडेगी गांव की है.

बीते दिनों कुरुमडेगी में एक बुजुर्ग की तबीयत बिगड़ गई. हालत इतनी नाजुक थी कि किसी भी कीमत पर अस्पताल पहुंचाना होगा वरना देर हो जायेगी. यहां देर हो जायेगी का मतलब आप बखूबी समझ पा रहे होंगे.

बुजुर्ग को अस्पताल पहुंचाना था लेकिन कैसे. गांव से मुख्य सड़क की दूरी है 8 किमी.

इस बीच ये कच्ची पथरीली पगडंडी ही एकमात्र रास्ता है.

इस रास्ते में कहीं दुर्गम जंगल है. कहीं घास का खुला मैदान तो कहीं उफनता बरसाती नाला. ऊपर से बारिश और लगातार मेघ का गरजना. मरता क्या न करता.

आखिरकार बुजुर्ग के घरवालों ने गांव वालों की मदद से खटिया के सहारे ही मरीज को मुख्य सड़क तक पहुंचाना तय किया. खटिया उठाई और सफर पर निकल गये.

हिंदी वाला सफर नहीं. अंग्रेजी वाला सफर. एसयूएफएफईआर.

देखिए न. इन लोगों को खटिया सहित उफनते बरसाती नाले में उतरना पड़ा.

बहाव इतना तेज कि कदम बहुत साधकर रखने पड़ रहे हैं. ये तो हाल है. इसके बाद भी यदि सरकार को लगता है कि उन्होंने विकास की लकीर खींची है तो फिर इस तस्वीर को ही उस विकास का पोस्टर बना देना चाहिए.

विकास का दावा करने वाले बैनर में यही तस्वीर चस्पा करनी चाहिए क्योंकि झारखंड गठन के 24 साल बाद भी यदि मरीजों को ऐसे खटिया में लिटाकर बरसाती नाला पार करना पड़े तो वाकई ये अभूतपूर्व विकास है.

विज्ञापनों में व्यस्त सरकार धरातल की सच्चाई नहीं देखती

ऐसी तस्वीरें तो आयेंगी ही. जहां सरकार विज्ञापनों में चलती हो.

जहां मुख्यमंत्री हर वाजिब सवाल पर आदिवासी होने का विक्टिम कार्ड खेलने लग जायें. जहां स्वास्थ्य मंत्री का ध्यान कर्तव्य से ज्यादा कर्मकांड पर लगा रहे. जहां मंत्री काम से ज्यादा दर्शन पर ध्यान दें.

जहां मंत्री का हर सार्वजनिक भाषण और सरकारी कार्यक्रम मुशायरे में तब्दील हो जाये. सवालों पर शायरी होने लगे तो ऐसी ही तस्वीरें आयेंगी.

झारखंड में ग्रामीण सड़क निर्माण का बुरा है हाल

इस शर्मनाक तस्वीर के लिए झारखंड के कम से कम 3 विभाग जिम्मेदार हैं.

सड़क परिवहन, ग्रामीण कार्य और स्वास्थ्य विभाग.

पिछले साल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने झारखंड में 3,550 करोड़ की लागत से 539 किमी लंबी 21 सड़क परियोजनाओं का लोकार्पण और शिलान्यास किया था.

इस बीच मुख्यमंत्री ने खुद यह जानकारी दी थी कि झारखंड में सड़क निर्माण के लिए वित्तीय वर्ष 2017-18 में 205 करोड़, 2018-19 में 169 करोड़, 2019-20 में 500 करोड़ और 2020-21 में 675 करोड़ रुपये केंद्र सरकार से मिले थे.

जनवरी 2024 में झारखंड की हेमंत सरकार ने पीएम ग्राम सड़क योजना के तहत 19 पथ और 12 पुलों के निर्माण की मंजूरी दी थी. इसकी लागत 208.47 करोड़ रुपये थी.

इनमें से 166 करोड़ केंद्र सरकार देती और शेष साढ़े 42 करोड़ रुपये राज्य सरकार निवेश करती.

वित्तीय वर्ष 2024-25 में कुल बजट का 5.5 फीसदी हिस्सा प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में सड़क औरर पुल-पुलिया बनाने के लिए खर्च किया जाना है.

अब समझ नहीं पा रहा है कि ये जो भारी-भरकम रकम और दर्जनों परियोजनाएं हैं. यहां कहां पर इंप्लीमेंट हुई. पैसा कहां खर्च हुआ.

सड़कें और पुल-पुलिया कहां बनाई गयी हैं यदि मरीजों को ऐसे खटिया पर ढोना पड़ रहा है तो.

अब बात सिमडेगा की जहां की ये तस्वीर है.

सरकारी आंकड़ा कहता है कि वित्तीय वर्ष 2022-23 में झारखंड के ग्रामीण इलाकों मंढ 1040 किमी लंबी सड़कें बनीं. इनमें सबसे कम सिमडेगा में बनीं.

आंकड़ा कहता है कि सिमडेगा में केवल 8 किमी लंबी सड़क ही बनी.

सुदुरवर्ती ग्रामीण इलाकों में नहीं है बेहतर स्वास्थ्य ढांचा

अब बात हेल्थ विभाग की. चालू वित्तीय वर्ष में सरकार ने पीवीजीटी बहुल गांवों में मोबाइल विलेज क्लीनिक बनाने का वादा किया था.

आदिवासी बहुल जिलों मसलन सिमडेगा, गुमला, खूंटी, चाईबासा, साहिबगंज और पाकुड़ में सीएम हाट बाजार क्लीनिक खोलने का वादा किया था.

इससे पहले 2022-23 के बजट में जनजातीय बहुल गांवों में बाइक एंबुलेंस की सुविधा उपलब्ध कराने की बात कही थी.

इससे पहले 2020-21 के हेल्थ बजट में सरकार ने आदिवासी बहुल इलाकों को अतिरिक्त वित्तीय सहायता देने की बात की थी.

वादा था कि पीएचसी, सीएचसी और रेफरल अस्पतालों को हेल्थ और वेलनेस सेंटर के रूप में विकसित किया जायेगा. पिछले 4 साल से इतनी घोषणाओं और खर्च के बावजूद यदि मरीजों को खटिया में हॉस्पिटल पहुंचाना पड़े.

सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में टॉर्च की रोशनी में इलाज हो तो फिर चिंता की बात है.

दिक्कत की बात ये है कि सरकारें अभूतपूर्व विकास का दावा वाला पोस्टर और बैनर ऊपर आसमान में लटकाती है.

लोग धरातल की सच्चाई देख ही नहीं पाते.

देख ही नहीं पाते कि उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन और पोषण जैसी बुनियादी सुविधायें भी नहीं मिल पाई है.

यहां चुनाव ही आदिवासी अस्मिता पर लड़ा जा रहा है. सीएम कहते हैं कि उनको आदिवासी होने की वजह से सताया जा रहा है.

आपको जानकर हैरानी होगी कि खटिया पर यूं ढोये जा रहे मरीज ज्यादातर आदिवासी ही हैं. समझिए कि आदिवासी क्या मांग रहे हैं. सरकार क्या दे रही है.

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