बिहार में OBC और दलित वोटरों के सहारे Congress, BJP-JDU को कितना होगा नुकसान ?

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ऐसा लगता है कांग्रेस ने हरियाणा की गलती से सीख ली है और किसी भी कीमत पर बिहार में वो गलती नहीं दुहराना चाहती है। तभी तो पार्टी के सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता राहुल गांधी सिर्फ 20 दिनों में दो बार बिहार का दौरा कर चुके हैं। संदेश साफ है, कांग्रेस ने अपनी तैयारियां समय रहते शुरू कर ली है। लेकिन अगर आप राहुल गांधी के दोनों दौरों को गौर से देखेंगे और राहुल का बयान या भाषण पर थोड़ा भी गौर करेंगे, तो समझ आएगा कि वे बिहार में पिछड़ा समाज के वोट को अपनी तरफ लाने के प्रयास में हैं और उसी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

राहुल गांधी सामाजिक न्याय के मुद्दे को और प्रमुखता से उठाने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं। 18 जनवरी को पटना में राहुल गांधी की जो रैली थी, उसका नाम ही था संविधान की रक्षा, उसमें भी राहुल गांधी ने समाजिक न्याय का नारा बुलंद किया था साथ ही जातीय जनगणना और दलित-पिछड़ों की भागीदारी का हिस्सा उठाया था। फिर 5 फरवरी को वे जगलाल चौधरी के 130वीं जयंती में शामिल होने बिहार पहुंचे। जगलाल चौधरी स्वतंत्रता संग्राम के अग्रिम सिपाही थे, राजनीतिक रूप से भी सक्रिय रहे,पासी समाज से आते थे, पासी अनुसूचित जाति के अंतर्गत आता है।

यह तो समझ आ गया कि राहुल गांधी का कांग्रेस का ही मुख्य फोकस इस बार बिहार का पिछड़ा वर्ग रहने वाला है। इसी के इर्द-गिर्द कांग्रेस की रणनीति बनेगी और इन्हें ही साधने के लिए पार्टी जोर लगाएगी। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या कांग्रेस बिहार के दलित और पिछड़ा वोट को अपने पाले में कर पाएगी? अगर हां तो कैसे और कितना?
आखिर जिस प्लान के साथ कांग्रेस बिहार में आगे बढ़ रही है, उसमें सफलता की संभावनाएं यानी प्रोबैबलिटी कितनी है और राहुल गांधी के सामाजिक न्याय का नारा कितना सफल हो पाएगा?

बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों पर आधारित है। यहां दलित, ओबीसी और मुस्लिम वोटरों की अहम भूमिका होती है। इसलिए जरूरी है कि हम आंकड़ों पर गौर करते हुए विश्लेषण को आगे बढ़ाएं। बिहार में 18% मतदाता दलित समुदाय से आते हैं, जिनमें 3% सिर्फ पासी समाज के लोग हैं। कभी यह वोट बैंक कांग्रेस का हुआ करता था, लेकिन 1990 के बाद मंडल राजनीति के उभार के साथ यह आरजेडी, जेडीयू और अन्य दलों में बंट गया। अब कांग्रेस इसे वापस अपनी तरफ लाने की कोशिश कर रही है।

साफ दिख रहा है कि कांग्रेस ने दलित और पिछड़े वर्गों को अपने पक्ष में लाने के लिए सामाजिक न्याय और आरक्षण के मुद्दे को धार दी है। राहुल गांधी पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने की मांग उठा रहे हैं यह भी कह रहे हैं कि आरक्षण की सीमा जो 50%  है, उसे खत्म किया जाए। यानी जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। उन्होंने दलितों,आदिवासियों और पिछड़ों के लिए सरकारी और प्राइवेट कंपनियों में अधिक भागीदारी की भी वकालत की है।

दूसरी तरफ कांग्रेस पिछड़े समाज के प्रभावशाली नेताओं को पार्टी से जोड़ रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रतन लाल और पसमांदा मुस्लिम नेता अली अनवर अंसारी कांग्रेस के इस अभियान में शामिल हो चुके हैं। साथ ही, दशरथ मांझी के बेटे को भी कांग्रेस में शामिल किया गया है। हाल ही में भाजपा, आप और अन्य पार्टियों के कई नेता कांग्रेस में शामिल हुए हैं।

बिहार में पिछड़ी जातियों की आबादी राजनीति को निर्णायक रूप से प्रभावित करती है। यहां ओबीसी यानी अन्य पिछड़ा वर्ग, ईबीसीयानी अत्यंत पिछड़ा वर्ग और दलित समुदाय की महत्वपूर्ण उपस्थिति है। यादव, जो कुल आबादी का लगभग14-15%हैं, सबसे बड़ी ओबीसी जाति मानी जाती है और पारंपरिक रूप सेराष्ट्रीय जनता दलका समर्थन करती है। कुशवाहा जाति, जिसकी आबादी8-9%है, आमतौर परजनता दल यूनाइटेडऔररालोसपासे जुड़ी रही है, अब रालोसपा का जदयू में विलय हो गया है।3-4%आबादी वाली कुर्मी जाति, जिसे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कोर वोट बैंक माना जाता है, परंपरागत रूप सेजदयूके पक्ष में मतदान करती है। अत्यंत पिछड़ा वर्ग की कुल आबादी 25-30%के आसपास है, इसमें नाई, बढ़ई, तेली, माली, कुम्हार, धोबी, कहार आदि जातियां शामिल हैं। यह समूह स्विंग करता है। हाल के वर्षों में इनका समर्थन भाजपा और जदयू को अधिक मिला है।

दलित समुदाय की आबादी16%के करीब है। यह दो प्रमुख वर्गों में बंटा हुआ है। पासवान जाति, जो लगभग4-5%है और रविदास, मुसहर तथा चमार जैसी जातियां, जिनकी कुल आबादी10-11%के आसपास है। पासवान जाति के लोग परंपरागत रूप सेलोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा)के समर्थक रहे हैं। रविदास, मुसहर तथा चमारपहले राजद के कोर वोटर माने जाते थे, हालांकि, हाल के वर्षों में इनमें से कुछ वोट भाजपा और जदयू की ओर भी शिफ्ट हुए हैं।

अब हम समझते हैं कि बिहार में कांग्रेस के पिछड़े वोटों का इतिहास क्या रहा है?

एक समय बिहार में कांग्रेस का वोटबैंक दलित, मुस्लिम और सवर्ण जातियों में मजबूत था। लेकिन मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद ओबीसी और दलितों की राजनीति में बड़ा बदलाव आया और कांग्रेस कमजोर पड़ने लगी। 2000 में बिहार में कांग्रेस का वोट शेयर 11.06% था, लेकिन 2005 के चुनाव में यह घटकर 6.1% रह गया। 2010 में 8.4% वोट मिले और सिर्फ 4 सीटें आईं। कांग्रेस की हालत सुधारने के लिए पार्टी ने 2015 और 2020 में आरजेडी के साथ गठबंधन किया, जिससे 2020 में 9.4% वोट मिले। लेकिन फिर भी कांग्रेस बिहार में राजद की छत्रछाया से निकल नहीं सकी और अब भी अपना अस्तित्व तलाश रही है।

कांग्रेस की विफलता के कई कारण रहे हैं। जातीय आधार पर वोटों का बंटवारा हुआ, जिससे कांग्रेस का पुराना दलित और ओबीसी वोटबैंकआरजेडी और जेडीयू में शिफ्ट हो गया। अशोक चौधरी के जदयू में शामिल होने के बाद कांग्रेस के पास कोई बड़ा दलित या ओबीसी चेहरा नहीं बचा, जिससे मतदाता अलग हो गए। खुद को बचाए रखने के लिए कांग्रेस हमेशा गठबंधन पर निर्भर रही, जिससे पार्टी का अपना आधार कमजोर होता गया। वहीं, बीजेपी और जेडीयू ने सत्ता में रहने का फायदा उठा और ओबीसी व दलितों के लिए कई योजनाएं लागू कीं, जिससे उनका झुकाव एनडीए की तरफ बढ़ा।

कांग्रेस 2025 में अच्छा प्रदर्शन करना चाहती है, तो उसके लिए पिछड़ी जातियों के पटरी पर थोड़ा और तेज चलना होगा। तेज से मेरा मतलब है बेहतर रणनीति और गंभीर मुद्दों के साथ आना होगा। जातिगत जनगणना और आरक्षण बढ़ाने का मुद्दा कारगर हो सकता है। पासी और अन्य दलित नेताओं को आगे लाना होगा, उन्हें जिम्मेवारियां देनी होंगी। स्थानीय नेताओं को मजबूत करना और टिकट वितरण में पिछड़ों को प्राथमिकता देनी होगी। साथ ही मुस्लिम-दलित गठबंधन को फिर से मजबूत करना होगा। कांग्रेस के लिए बेहतर होगा कि वह आरजेडी पर अपनी निर्भरता कम करे और अपने दम पर चुनाव लड़े, ताकी उसका अपना जनाधार मजबूत हो। भले ही सीटें कम आए, लेकिन संगठन विस्तार हो, जिसका फायदा आने वाले दिनों में दिखेगा। संगठन के लिए गांव और छोटे शहरों में जमीनी स्तर पर अभियान चलाना होगा।

बिहार में बीजेपी जातीय राजनीति से बचने की कोशिश करती है, लेकिन कांग्रेस इसे मुद्दा बनाकर दलित और पिछड़ों को अपने पाले में करना चाहती है।यह बिहार के लिए माकूल और सही मुद्दा है। बशर्ते कांग्रेस इसे आगे लेकर जाने में कामयाब हो सके।

बिहार में कांग्रेस की राजनीति जातिगत समीकरणों पर केंद्रित हो रही है। राहुल गांधी ने दलित-पिछड़े और मुस्लिम वोट बैंक को दोबारा जोड़ने का मिशन शुरू किया है। राहुल गांधी के बैक-टू-बैक दौरे बता रहे हैं कि कांग्रेस बिहार को लेकर काफी गंभीर है और दमखम के साथ चुनाव लड़ने के लिए तैयार है। हालांकि बिहार में अभी बहुत कुछ होना बाकी है। कई नए खिलाड़ी भी मैदान में होंगे। निश्चित तौर पर कांग्रेस के लिए रास्ता आसान नहीं है, लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं है।

 

 

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