Report – Vivek Aryan
29 मार्च 2025 को एक निजी चैनल एक कार्यक्रम में केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) के नेता चिराग पासवान ने जो कहा, उससे बिहार की सियासत को समझने की एक नई दृष्टि मिलती है। समझ आता है कि क्यों बिहार और यहां की राजनीति सबसे अलग है और क्यों यहां भाजपा अबतक पांव पसार पाने में नाकामयाब रही है।
चिराग पासवान ने कहा, “मैं हिंदू-मुस्लिम राजनीति के पक्षधर नहीं हूं। यह फालतू की बातें हैं। सदियों से हिंदू और मुस्लिम साथ रहते आए हैं। इससे जरूरी कई मुद्दे हैं, कब तक बेकार की बहसों में उलझे रहोगे?”
आप देखिए कि यह बयान न सिर्फ उनकी व्यक्तिगत सोच को दर्शाता है, बल्कि बिहार की सियासत में एक बड़े सवाल को उठाता है। चिराग भाजपा की तरफ इशारा करते हुए यह भी कहते हैं कि उन्हें भी सलाह देना चाहता हूं कि यह सब करना बंद करें। चिराग पासवान के इस बयान की व्याख्या कई तरीकों से हो रही है। सभी के अपने अर्थ और अपने कयास है। मैं आपको उसमें नहीं उलझा रहा हूं, सीधा बता रहा हूं कि इसका अर्थ क्या हो सकता है।
क्या चिराग पासवान अपनी अलग राह तलाश रहे हैं?
क्या चिराग पासवान भाजपा के विचार से ऊब चुके हैं और नए ढंग की राजनीति करना चाहते हैं, क्योंकि ऐसा नहीं है कि भाजपा ने अब इस तरह की राजनीति करनी शुरू की है। ऐसा नहीं है कि चिराग को अब यह दिखना शुरू हुआ है कि उनके सहयोगी दल धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करते हैं। तो फिर चिराग ने पहले कुछ क्यों नहीं कहा? वे तो भाजपा के साथ कई सालों से गठबंधन में हैं।
दूसरा, क्या चिराग पासवान अपनी अलग राह तलाश रहे हैं? और क्या वह राह आगे जाकर राजद या कांग्रेस के साथ मिलती है? मैं नहीं कह रहा हूं कि अभी वे शामिल हो जाएंगे, लेकिन इस बयान के विश्लेषण में तो इस बात की संभावना नजर आती ही है। अभी चुनाव में वक्त भी है, क्या पता हवा किस तरफ की हो।
तीसरा, क्या चिराग पासवान बिहार की राजनीति में अपना कद बढ़ाने के लिए ऐसा कर रहे हैं। क्योंकि वे समझते हैं कि बहुत दूर तक जाने के लिए बहुत सधी हुई चाल चलनी पड़ेगी?
क्या है चिराग की योजना और उससे कैसे प्रभावित होगा बिहार और बिहार का राजनीति। आज इसी पर करेंगे विश्लेषण और बताएंगे आपको कि चिराग पासवान के भाजपा से अलग राग अलापने का अर्थ क्या है।
बिहार की राजनीति को ध्रुवीकरण एंगल से समझिए
सबसे पहले हम बिहार की राजनीति में ध्रुवीकरण के एंगल को समझते हैं। इसके बाद चिराग पासवान की राजनीति और राजनीतिक महत्वाकांक्षा पर एक नजर डालेंगे।
देखिए, बिहार की सियासत में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का मुद्दा देश के अन्य राज्यों की तरह प्रभावी नहीं रहा है। जहां उत्तर प्रदेश, गुजरात, या महाराष्ट्र में सांप्रदायिक मुद्दे वोटरों को बांटने में कामयाब रहे हैं, वहीं बिहार में यह रणनीति ज्यादातर नाकाम रही है। क्योंकि यहां जातिगत राजनीति होती रही है और दो वर्ग के बजाय यहां कई वर्गों में लोग बंटे हुए हैं। भाजपा ने 2015 में जंगलराज और 2020 में घुसपैठियों का मुद्दा उठाया था। लेकिन येदोनों ही रणनीति काम नहीं आई। दिक्कत है कि भाजपा के अलावा किसी भी पार्टी का जनाधारसांप्रादायिक कारणों से नहीं है। जेडीयू, राजद, कांग्रेस, लोजपा के दोनों घटक, हम, वीआईपी, जैसी सभी पार्टियां जाति आधारित जरूर हैं, लेकिन कभी भी धार्मिक आधार पर वोट नहीं मांगते हैं। अब अगर भाजपा को सरकार में आना है, तो गठबंधन करना ही होगा और गठबंधन में आने वाली कोई भी पार्टी उनके इस हिंदू-मुस्लिम राजनीति में साथ नहीं दे पाती है।
आजादी के बाद से बिहार में बड़े पैमाने पर नहीं हुए सांप्रदायिक दंगे
बिहार में सांप्रदायिक दंगे देश के अन्य राज्यों की तुलना में बहुत कम होते हैं। इसका कारण ऐतिहासिक और सामाजिक है। 1947 के बंटवारे के दौरान बिहार में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा नहीं हुई, जैसा कि पंजाब या बंगाल में देखा गया।मुस्लिम पक्ष के साथ यहां के हिंदुओं की उस तरह की लड़ाई भी नहीं रही है। इसका मतलब यह नहीं है कि यहां दंगे कभी हुए ही नहीं। 60 और 70 दशक में कई बार इस तरह की घटनाएं हुईं है, लेकिन जातिगत विभाजन ज्यादा हावी रहा। मैं आपको आंकड़े देता हूं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी NCRB के 2022 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में कुल 378 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुईं। इनमें से उत्तर प्रदेश में 87, गुजरात में 52, और महाराष्ट्र में 41 घटनाएं दर्ज की गईं। वहीं, बिहार में सिर्फ 8 घटनाएं हुईं। जबकि बिहार की गुजरात से अधिक ही है।
2013 में मुजफ्फरपुर और 2023 में सासाराम में छोटे स्तर की सांप्रदायिक घटनाएं हुईं, लेकिन ये व्यापक हिंसा मं8 नहीं बदलीं। सीमांचल के किशनगंज जैसे मुस्लिम बहुल इलाके में भी हिंदू-मुस्लिम टकराव की घटनाएं न के बराबर हैं। इस कारण बिहार में भाजपा हमेशा दूसरे या तीसरे नंबर का पार्टी रही है। पहली बार 2020 में भाजपा की सीटें जदयू के अधिक आईं, उसके लिए भी जदयू खुद ही जिम्मेवार लगती है।
दूसरी तररफ चिराग पासवान भी इस तरह की राजनीति के पक्षधर नहीं रहे हैं, न ही उनके पिता रामविलास पासवान थे। चिराग पासवान मुख्य रूप से दलित वर्ग के नेता हैं। खासकर पासवान समुदाय के। बिहार की 2023 जाति जनगणना के मुताबिक, पासवान समुदाय की आबादी करीब 5.3%है, यानी लगभग 70 लाख लोग।
पासवान वोटरों की खासियत यह है कि वे एकजुट होकर वोट करते हैं और फिलहाल वे चिराग को ही वोट कर रहे हैं। इस तरह 70 लाख लोगों के वे नेता हैं। मगध, शाहाबाद, और मिथिलांचल क्षेत्रों की सीटों पर उनका प्रभाव अच्छा है। हाजीपुर, समस्तीपुर, जमुई, और वैशाली की भी कुछ सीटों पर उनकी पार्टी का अपर हैंड है। इन सीटों पर पासवान समाज की संख्या 15 से 25 प्रतिशत तक है।
हालांकि 2020 में वे अकेले चुनाव लड़े थे, इसलिए सिर्फ एक ही सीट जीत पाए थे। लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में वे एनडीए के साथ थे और बिहार में उन्हें 5 सीटें दी गई थीं—हाजीपुर, जमुई, समस्तीपुर, खगड़िया, और वैशाली। खास बात यह रही कि उनकी पार्टी ने सभी5 सीटें जीत लीं। खुद चिराग हाजीपुर से सांसद बने और अब केंद्रीय खाद्य एवं उद्योग मंत्री हैं।
चिराग एनडीए से अलग रास्ता अपना सकते हैं?
अब आते हैं अपने मूल सवाल पर। क्या क्या चिराग एनडीए से अलग रास्ता अपना सकते हैं। देखिए, RJD और कांग्रेस पहले ही उन्हें लुभाने की कोशिश कर चुके हैं। उनके दरवाजे तो खुले ही हैं। लेकिन चिराग ने ज्यादा दिलचस्पी दिखाई नहीं है। एक बार 2023 में तेजस्वी यादव के इफ्तार में चिराग की मौजूदगी ने सियासी हलचल मचाई थी। हालांकि फिर इस कयास पर विराम ही लग गया।
हालांकि अगर चिराग इंडिया गठबंधन में जाते हैं तो चिराग को 5 प्रतिशत पासवान वोट के साथ-साथ मुस्लिम वोटों का भी फायदा हो सकता है। दूसरा,चिराग का नीतीश से पुराना टकराव है। इंडिया गठबंधन में शामिल होकर वे नीतीश पर खुलकर हमला कर सकते हैं और अपना विस्तार कर सकते हैं।
ये बातें अपनी जगह पर सही हैं, लेकिन फिर भी ऐसा नहीं लगता कि चिराग अभी एनडीए को छोड़ने की सोंच भी रहे हैं। क्योंकि चिराग केंद्र में मंत्री हैं, दो-चार सीटों के लिए वे इस तरह का कदम नहीं उठाएंगे। रही बात पार्टी के विस्तार की, तो अभी चिराग के पास काफी समय है, वे आराम से इसपर काम कर सकते हैं। लेकिन जल्दीबाजी कर वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारेंगे। एनडीए से अलग लड़ने की खामियाजा भी वे भुगत चुके हैं। इसलिए हमारे हिसाब से तो इस कयास में कोई दम नहीं है कि वे एनडीए छोड़कर कहीं जा सकते हैं।
तो फिर इस बयान का अर्थ क्या है। कुछ खास नहीं, बस इतना की चिराग एनडीए में रहकर भी खुद को अलग खड़ा रखने में कामयाब हो रहे हैं। उन्होंने संदेश दे दिया है कि वे केवल राजनीतिक कारणों से भाजपा के साथ हैं, कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं है।
इस तरह चिराग अपने वोटरों को साफ संदेश दे रहे हैं कि वे उनके हितों का खयाल रख रहे हैं और सांप्रदायिकता से दूर हैं। भाजपा को आईना दिखाने के काम कर वे भाजपा के साथ अपनी शर्तों पर जुड़े रहेंगे। सीट बंटवारे के दौरान भी वे अपनी बात मजबूती से रख सकेंगे।
यानी कि चिराग पासवान ने भले ही भाजपा की राजनीति कि खिलाफ बयान दिया हो, लेकिन उनका मकसद भाजपा को आईना दिखाने के अलावा कुछ और नहीं था। वे एनडीए में रहकर भी अपनी स्टैंड साफ करना चाह रहे थे।
आपकी इस पर क्या राय है, हमें लिखकर बताएं। चिराग का राजनीति को आप किस तरह देखते हैं, यह भी हमें बताएं .