कैसा हो जब आपको पता लगे कि हिदुत्व की विचारधारा को अपनी राजनीति के केंद्र में रखने वाली भाजपा की नीव समाजवाद और गांधीवाद के विचार पर रखी गयी थी. जी, इसपर यकीन करना थोड़ा मुश्किल ज़रूर है लेकिन यही सच है.
अप्रैल 1980 में हुई बैठक में इस नवगठित पार्टी के अध्यक्ष ने नया राग अलाप दिया. ‘गांधीवादी समाजवाद’ का राग. यह राग RSS की स्थापित सोच से एकदम अलग था और बिलकुल जुदा थीं. लेकिन सब चुप रहे,
आखिर, समाजवाद – गांधीवाद के नाम पर बनी पार्टी ने उग्र राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के विचार को अपनी राजनितिक ढाल कैसे बनायीं और 2 सीट से सीधे 300 से अधिक सीटें हासिल करने में कैसे कामयाब हो गयी.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और जनता पार्टी की दोहरी सदस्यता के सवाल पर जब समाजवादियों ने मोरारजी सरकार को गिराया तो चरण सिंह भी ज्यादा दिन नहीं टिक पाए. चुनावों में जनता पार्टी के पतन के बाद 6 अप्रैल 1980 को दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की गई.
BJP ने गांधीवादी समाजवाद को स्वीकार किया और अपने आपको जनसंघ से अलग पार्टी की तरह पेश किया.
1980 के अंत में भारतीय जनता पार्टी ने गांधीवादी समाजवाद के विचार को स्वीकार किया और अपने आपको जनसंघ से अलग पार्टी की तरह पेश किया. मुंबई में इसका पहला अधिवेशन हुआ. जिसकी अध्यक्षता अटल बिहारी वाजपेयी ने की. वाजपेयी ही 1980 से 1986 तक भाजपा के अध्यक्ष रहे.
तारीख थी 6 अप्रैल 1980, दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में कुछ नेता एकठ्ठे हो रहे थे, जो कि सिर्फ 2 दिन पहले ही अपनी पार्टी से निकाले गए थे. इन नेताओं का मकसद एक नई पार्टी की स्थापना करना था. इस बैठक में 2 बड़े वकील, एक ‘महारानी’, 4 बड़े नेता जो जनता पार्टी की सरकार में मंत्री रहे थे, और कई कार्यकर्ता भी मौजूद थे.
परदे के पीछे से इस मीटिंग पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानि RSS छाया थी. बैठक शुरू होते ही इस नई पार्टी के अध्यक्ष ने एक नया राग अपनाया, ‘गांधीवादी समाजवाद’ का. यह राग RSS की सोच से बिलकुल अलग था, लेकिन सब चुप रहे, क्योंकि इस नेता का कद बहुत बड़ा था और वह पार्टी के पोस्टर ब्वाय भी थे.
जनसंघ घटक के लोगों का जनता पार्टी में रहना मुश्किल हो गया था.
बात 1978 की है. उस समय केंद्र में जनता पार्टी की सरकार थी. जनता पार्टी मतलब जिसे सोशलिस्ट, जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, और पुराने कांग्रेसी मिला जुला स्वरुप था. पार्टी ने मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री बनाया था. सोशलिस्ट खेमे से आए राजनारायण स्वास्थ मंत्री थे, जबकि जनसंघ खेमे से शांता कुमार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. दोनों में तनातनी हो गयी. दरअसल शांता कुमार की सरकार ने शिमला के रिज़ मैदान में राजनारायण को सभा करने की इजाजत नहीं दी. इसके बावजूद, राजनारायण ने 25 जून 1978 को रिज़ मैदान में सभा की थी. इस सभा के बाद से जनता पार्टी के अंदर सोशलिस्टों और जनसंघ के बीच मतभेद बढ़ते गए. इसका परिणाम था कि 29 जून को राजनारायण की केन्द्रीय मंत्रिमंडल से विदाई हो गयी. कहा जाता है कि राजनारायण (बाएं) और मधु लिमये (दाएं) की वजह से जनसंघ घटक के लोगों का जनता पार्टी में रहना मुश्किल हो गया था.
कुछ ही दिनों के बाद, जब रिज़ मैदान प्रकरण और राजनारायण को कैबिनेट से हटाया गया, तब सोशलिस्ट नेता मधु लिमये ने एक नया विवाद का छेड़ दिया. उन्होंने जनता पार्टी के अंदर में एक मांग रखी कि पार्टी के किसी सदस्य का भी RSS जैसे सांप्रदायिक संगठन से कोई जुड़ाव नहीं होना चाहिए. उनकी इस मांग को समर्थन उन जनता पार्टी के नेताओं से मिलने लगा जो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर से असंतुष्ट थे. इस परिस्थिति का परिणाम था कि जुलाई 1979 में जनता पार्टी धड़धड़ा कर गिर गयी. ऐसी गिरी कि 1980 के लोकसभा चुनाव में उसे सिर्फ 31 सीटें मिलीं. इंदिरा गांधी की साढ़े तीन सौ सीटों के साथ सत्ता में वापसी हुई.
जब जनसंघ घटक के अधिकांश सदस्यों को पार्टी से बाहर कर दिया गया
4 अप्रैल 1980 को, जनसंघ घटक के अधिकांश सदस्यों को पार्टी से बाहर कर दिया गया. पार्टी से निकलेंगे गए लोगों ने अपने राजनीतिक भविष्य की खोज शुरू कर दी . यह तलाश निकाले जाने से पहले ही शुरू हो चुकी थी। लालकृष्ण आडवाणी और सुंदर सिंह भंडारी ने फरवरी-मार्च के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में घूमकर अपने समर्थकों की भावनाओं को जानने का प्रयास किया था। इन व्यक्तियों को अब यह अनुभास होने लगा था कि उन्हें आगे बढ़ने के लिए अपनी हिंदुत्व विचारधारा के साथ एक नई पार्टी की आवश्यकता है. जैसे जनता पार्टी में मर्जर से पहले जनसंघ हुआ करता था.
पार्टी से निकाले जाने के बाद, अगले दिन, यानी 5 अप्रैल 1980, दिल्ली के फिरोज शाह कोटला मैदान में एक बैठक का आयोजन हुआ. इस बैठक का संचालन ग्वालियर एस्टेट की राजमाता विजयराजे सिंधिया ने किया. इस बैठक में पूर्व विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व सूचना-प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी, सिकंदर बख्त, शांति भूषण, और राम जेठमलानी जैसे व्यक्तित्व शामिल थे.
इस बैठक में निर्णय लिया गया कि एक नई पार्टी की स्थापना की जाएगी. इस प्रस्तावित पार्टी को आरएसएस (RSS) का भी समर्थन मिला, क्योंकि इसमें अधिकांश वे लोग शामिल थे जो RSS के संगठन से संबंधित थे और पूर्ववर्ती जनसंघ के सदस्य रहे थे.
अगले दिन, यानी 6 अप्रैल 1980 को, एक नई राजनीतिक दल की घोषणा की गई जिसका नाम रखा गया भारतीय जनता पार्टी. इस दल के अध्यक्ष के रूप में चुने गए थे अटल बिहारी वाजपेयी. इसमें विजयराजे सिंधिया और राम जेठमलानी को उपाध्यक्ष के पद पर स्थान मिला. लालकृष्ण आडवाणी, सिकंदर बख्त, और सूरज भान को महासचिव का पद सौंपा गया.
वाजपेयी ने गांधीवादी समाजवाद की स्थापना को अपनी पार्टी का मुख्य लक्ष्य घोषित किया
6 अप्रैल की शाम को, नई गठित पार्टी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई. इस कॉन्फ्रेंस में, नवनियुक्त पार्टी अध्यक्ष अटल बिहारी वाजपेयी ने हिंदुत्व या आरएसएस-जनसंघ की किसी भी प्रचलित शब्दावली से परहेज रखा. उनका मुख्य फोकस जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति के उद्देश्यों पर था। वाजपेयी ने गांधीवादी समाजवाद की स्थापना को अपनी पार्टी का मुख्य लक्ष्य घोषित किया.
1984 का लोकसभा चुनाव नवगठित भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण इम्तिहान था. यही वह चुनाव था, जिसके ठीक पहले हिंदुत्ववादी संगठनों ने अयोध्या विवाद को गर्माना शुरू कर दिया था. बिहार के सीतामढ़ी से अयोध्या होते हुए दिल्ली तक राम-जानकी यात्रा निकाली गई. वैसे इस यात्रा में आधिकारिक तौर पर भाजपा की कोई सक्रियता नहीं थी लेकिन फिर भी इसमें भाजपा के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में शामिल हुए.
लेकिन इस यात्रा का समय राजनीतिक दृष्टि से सही साबित नहीं हुआ. यात्रा को 31 अक्टूबर 1984 को दिल्ली पहुंचना था, लेकिन उसी दिन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई. इस हत्या के बाद, राम-जानकी यात्रा से जुड़ी सभी योजनाओं को स्थगित कर दिया गया. उस दिन से देश की चर्चा में सिर्फ इंदिरा गांधी और उनकी शहादत थी.
डेढ़ महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनावों पर भी इस हत्याकांड का आसान साफ तौर पर नजर आया. ऐसी सहानुभूति लहर चली कि समूचे विपक्ष का सूपड़ा साफ हो गया. अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे बड़े नेता भी चुनाव हार गए. उन्हें ग्वालियर सीट पर माधव राव सिंधिया ने हराया. भाजपा की तो हालत ऐसी कि कुल 2 सीटें ही मिलीं. एक आन्ध्र प्रदेश की नांदयाल और दूसरी गुजरात की मेहसाणा.
हार के बाद पार्टी में निराशा का माहौल छाया हुआ था, सवाल उठ रहे थे और जवाबदेही तय करने की बातें हो रही थीं. कई तरफ से अटल बिहारी वाजपेयी की नीतियों पर सवाल खड़े किए जा रहे थे. उनके द्वारा चुनावी सभाओं में बार-बार गांधीवादी समाजवाद और ‘नेहरूवियन साइंटिफिक टेंपरामेंट’ का मुद्दा उठाए जाने पर सवाल खड़े किए जा रहे थे.
इन सबके बीच हार के कारणों की जांच करने और जवाबदेही तय करने के लिए पार्टी नेता कृष्ण लाल शर्मा के नेतृत्व में एक कमेटी बनाई गई. लेकिन जब कमेटी की रिपोर्ट आई, तो उसमें वाजपेयी और उनकी नीतियों को हार का कारण मानने के तर्कों को सिरे से खारिज कर दिया गया.
1986 में, जब अटल बिहारी वाजपेयी भाजपा के अध्यक्ष थे, पार्टी को कोई खास सफलता नहीं मिल रही थी. 1983 के दिल्ली म्युनिसिपल इलेक्शन में भी पार्टी हार गई थी. ऐसे में पार्टी में शीर्ष स्तर पर बदलाव की मांग तेज़ हो रही थी.
जब लालकृष्ण आडवाणी को नया पार्टी अध्यक्ष बनाया गया
और आखिरकार मार्च 1986 में यह बदलाव भी हुआ, जब लालकृष्ण आडवाणी को नया पार्टी अध्यक्ष बनाया गया. यहां से पार्टी में आडवाणी युग की शुरुआत हो गई. आडवाणी युग की शुरुआत को पार्टी में RSS और हिंदुत्ववादी ताकतों की पकड़ मजबूत होने की निशानी माना गया. सिर्फ माना ही नहीं गया ही, बल्कि इसकी व्यवहारिकता में भी ऐसा देखा गया. भाजपा के पार्टी महासचिव के.एन. गोविंदाचार्य ने RSS से भेजे जाने के बाद पार्टी संगठन में अपना कब्जा बनाया, जिससे वाजपेयी साइडलाइन होते गए.
भाजपा ने वाजपेयी के निर्देशों के खिलाफ अयोध्या आंदोलन सीधे तौर पर खुद को जोड़ लिया. 1989 में, भाजपा के कार्यकर्ताओं ने राम मंदिर और हार्डकोर मुद्दों पर आक्रमक रुख अपनाया और वाजपेयी के साथ अशिष्ट व्यवहार तक कर दिया। इस पर बिफरे वाजपेयी ने यहां तक कह दिया, “1952 और 1984 की तरह 2 सीटों पर ही सिमटने की इच्छा हो तो करो यही सब काम.”
जाहिर सी बात है कि उस समय तक पार्टी पर वाजपेयी की पकड़ ढीली हो चुकी थी. उनके गांधीवादी समाजवाद को पार्टी किनारे लगा चुकी थी. राम मंदिर और हिंदुत्व पार्टी का घोषित एजेंडा बन चुका था.
साल था 1989 , 9वीं लोकसभा चुनाव हो रहे थे. इस चुनाव में, एक अलग तरह का गठबंधन हुआ जिसमें एक ओर लेफ्ट (कम्युनिस्ट) और दूसरी ओर राइट (भाजपा) शामिल थे. गठबंधन का नेतृत्व जनता दल द्वारा किया जा रहा था. बोफोर्स घोटाले का बवाल चरम सीमा पर था, और विपक्ष को ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस को हराया जा सकता है. इस बीच, भाजपा के उम्मीदवारों की फाइनल लिस्ट आई, लेकिन उसमें अटल बिहारी वाजपेयी का नाम नहीं था. इस पर बहुत से लोग हेरान थे कि क्यों वाजपेयी का नाम उम्मीदवारों के लिस्ट में नहीं है, बताया गया कि उन्हें इसलिए चुनाव नहीं लड़ाया गया ताकि वे ज्यादा से ज्यादा सीटों पर पार्टी का प्रचार कर सकें. लेकिन राजनीतिक जानकारों के अनुसार, इस फैसले के साथी उन्हें किनारे बैठाने की कोशिश थी. पार्टी का नया नेतृत्व यानि आडवाणी और गोविंदाचार्य अटल बिहारी वाजपेयी को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के रास्ते में रुकावट के तौर पर देखते थे.