दिल्ली की 70 में से 22 विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां पूर्वांचलियों का दबदबा है। पूर्वांचल यानी मूल रूप सेपूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहारके विभिन्न जिलों से ताल्लुक रखने वाले लोग।
इनमें उत्तर प्रदेश से गोरखपुर, बलिया, मऊ, देवरिया, आजमगढ़, बनारस, चंदौली, मिर्जापुर, सोनभद्र और बिहार से पटना, छपरा, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, मधुबनी, सिवान, गोपालगंज आदि जिले आते हैं। दिल्ली में इनकी आबादी है 30 प्रतिशत के आस-पास है, जो एक बड़ी आबादी है। इसी कारण से हर चुनावीसाल पूर्वांचल के लोगों की चर्चा दिल्ली के संदर्भ में होती ही है।
इस बार भी ऐसा ही हुआ।शुरुआत से ही पूर्वांचल चर्चा में रहा, कभी अरविंद केजरीवाल के बयान के कारण, तो कभी कांग्रेस की इस घोषणा के कारण कि, वो दिल्ली में कुंभ की तर्ज पर छठ पूजा कराएंगे। होते-होते स्थिति ऐसी बनी कि पूर्वांचल ने ही दिल्ली की सरकार तय कर दी। कैसे हम आपको बताने जा रहे हैं।
हम आपको इस आर्टिक में बताएंगे कि कैसे पूर्वांचल के कारण ही दिल्ली में भाजपा जीत पाने में कामयाब हुई है। यानी कि भाजपा की जीत में सबसे अहम भूमिका पूर्वांचलियों की है।
सबसे पहले समझते हैं कि वे कौन सी सीटें हैं, जहां पूर्वांचलीप्रभावी संख्या में हैं या जहां यहां के लोगों का दबदबा माना जाता है। ये सीटें हैं बुराड़ी, बादली, मादीपुरनांगलोई जाट, किराड़ी, विकासपुरी, नजफगढ़, मटियाला, उत्तम नगर, द्वारका, करवल नगर, मुस्तफाबाद, घोंडा, सीलमपुर, रोहताश नगर, सीमापुरी, शाहदरा, विश्वास नगर, कोंडली, त्रिलोकपुरी, पटपड़गंज, लक्ष्मी नगर और कृष्णा नगर।
ये ऐसी सीटें हैं, जहां पूर्वांचल के लोगों की संख्या30 से 38 प्रतिशत तक है। कुछ अन्य सीटों पर भी पूर्वांचलीअच्छी संख्या में हैं, लेकिन हम सिर्फ 22 सीटों को लेकर ही चलते हैं। पिछले चुनाव में यानी 2020 में भाजपा में 8 सीटें जीती थी, ये सीटें थीं – करवल नगर, विश्वास नगर, रोहतास नगर, गांधी नगर, बदरपुर, लक्ष्मी नगर, रोहिणी और घोंडा।
2020 में BJP तीन सीटें ही जीत पाई थीं
अब आप देखिए कि जिन 22 सीटों के बारे में हमने आपको अभी बताया, उनमें से सिर्फ 3 सीटें भाजपा 2020 में जीत पाई थी। ये आंकड़ा याद रखिएगा। 8 में से सिर्फ 3 सीटें ऐसी थी, जो पूर्वांचल प्रभावित माना जाता है।
अब देखते हैं इस साल रिजल्ट में क्या रहा – इस साल भाजपा को इन 22 में से 17 सीटें मिली हैं। अनुपात देखिए, भाजपा को 45-46 हासिल होती हुई दिख रही है, जिसमें में 17 सीटें पूर्वांचल के प्रभाव में है। इसलिए मैंने कहा कि पूर्वांचल ने ही भाजपा को बिहार की गद्दी सौंपी है।
गौर करने वाली बात है कि अगर पिछले चुनाव में भाजपा को इन 22 में से सिर्फ 3 सीटें मिली थी, इसका मतलब तो यह हुआ कि 2020 में पूर्वांचली भाजपा के साथ नहीं थे। वे केजरीवाल के साथ थे। तभी तो उन्हें 62 सीटें मिली थीं। फिर 5 सालों बाद ऐसा क्या हुआ कि पूर्वांचल के लोगों ने भाजपा की तरफ अपना रुख मोड़ लिया।
इसके कारणों पर हम आते हैं, लेकिन उसके पहले हम आपको बता दें कि 2013 से पहले जब यहां कांग्रेस की सरकार थी, तब पूर्वांचली कांग्रेस के ही साथ थे। इससे दो चीजें पता चलती है। एक तो यह कि पूर्वांचली जिसके साथ हों, सरकार उनकी ही बनती है, और दूसरी कि ये वोट स्विंग करती है और जबरदस्त स्विंग करती है। पहले कांग्रेस, फिर आप और इस बार भाजपा के साथ।
इस बार बढ़ा BJP का वोट प्रतिशत
इसको हम वोट प्रतिशत के हिसाब से भी देख सकते हैं। पिछली बार भाजपा को 38.54 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि इस बार यह आंकड़ा 46 प्रतिशत तक पहुंच गया है। यानी लगभग 7.5 प्रतिशत का इजाफा। इसको हम अगर आंकड़ों में कनवर्ट करें तो होता है करीब 25 लाख। ये 25 लाख कौन हैं, जिन्होंने इस बार भाजपा पर भरोसा जताया है, जिन्होंने पिछली बार किसी और को वोट दिया था।
साफ तौर पर पूर्वांचल के लोगों की इसमें बड़ी हिस्सेदारी है।लेकिन क्यों? पूर्वांचल के लोगों ने भाजपा की तरफ अपना रुख क्यों मोड़ लिया।
मुझे और कई वरिष्ठ पत्रकारों को भी यह लगता है कि चुनाव प्रचार के दौरान अरविंद केजरीवाल द्वारा दिया गया बयान, जिसमें उन्होंने भाजपा पर मतदाता सूची में हेरफेर करने का आरोप लगाया था, और कहा था कि यूपी बिहार से फर्जी वोटर लाकर भाजपा उनका नाम मतदाता सूची में शामिल करवा रही है, इस बयानने खासकर पूर्वांचली मतदाताओं को नाराज किया।
भाजपा ने इस बयान को मुद्दा बनाते हुए पूर्वांचल के लोगों को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की कि आम आदमी पार्टी उन्हें संदेह की नजर से देखती है।राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाजपा ने इस मुद्दे को जोर-शोर से उठाकर चुनावी रणनीति को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की। और वे कामयाब भी हुए।
अब हम यह समझने का प्रयास करते हैं कि दिल्ली में पूर्वांचली नेताओं की स्थिति में अब क्या बदलाव आएगा। क्या उनका कद और बढ़ेगा? अगर हां, तो कितना।
अगर भाजपा के पूर्वांचली नेताओं की बात करें, तो पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और तीन बार के सांसद मनोज तिवारी को सबसे बड़ा पूर्वांचली चेहरा माना जाता है। इसके अलावा भाजपा पूर्वांचल मोर्चा के पदाधिकारी एवं लक्ष्मी नगर के विधायक अभय वर्मा भी इस समुदाय के प्रभावशाली नेता हैं।
ऐसा माना जा रहा है कि यदि पूर्वांचली मतदाताओं का झुकाव भाजपा की ओर रहा और पार्टी सत्ता में आई, तो इसकी बड़ी वजह यही दोनों हैं। इसके अलावा भाजपा के प्रदेश महामंत्री दिनेश प्रताप सिंह, जो खुद पूर्वांचल से आते हैं, को भी इसका श्रेय जाता है।
राजनीतिक विश्लेषक बद्रीनाथ सिंह क्या कहते है?
राजनीतिक विश्लेषक बद्रीनाथ सिंह का कहना है कि इस चुनाव में भाजपा नेताओं में सबसे अधिक सक्रियता मनोज तिवारी की रही। उन्होंने विधानसभा चुनाव के दौरान करीब 100 जनसभाएं और रोड शो किए। उनका फोकस पूरी दिल्ली में पूर्वांचली वोटरों को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने पर था।
इसके विपरीत अभय वर्मा, जो खुद लक्ष्मी नगर सीट से चुनाव लड़ रहे थे, ज्यादा क्षेत्रों में प्रचार नहीं कर सके। हालांकि, यदि वे लगातार दूसरी बार विधायक बनते हैं, तो भाजपा उन्हें भविष्य में पूर्वांचली चेहरे के रूप में और अधिक महत्व दे सकती है।
जो भी हो, इस बात में कोई दो राय नहीं है कि दिल्ली में जब भी सरकार बनी है, पूर्वांचल के वोटरों ने उसमें एक एहम भूमिका अदा की है। इस बार की जीत ने पूर्वांचल के नेताओं की हैसियत और बढ़ा दी है, जिसकी तस्वीर आने वाले दिनों में देखने को मिलेगी।